सचेतन 2.113 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – अंगद का संकल्प और जाम्बवान का निवारण
भले ही हममें कितनी भी शक्ति क्यों न हो, धैर्य और समर्पण भी उतना ही महत्वपूर्ण है
नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे आज के विशेष सचेतन के इस विचार के सत्र में, जहाँ हम बात करेंगे वानर सेना के वीर अंगद के उत्साह और जाम्बवान के विवेकपूर्ण निवारण की।दोस्तों, कहानी शुरू होती है उस समय से, जब हनुमान जी ने निशाचरों के साथ लंका को जीत लिया और युद्ध में रावण का वध कर, सीता माता को साथ लेकर, सफल और प्रसन्नचित्त होकर श्रीरामचन्द्रजी के पास वापस लौटने की तैयारी में थे। कपिवर अंगद ने एक अलग ही निर्णय लिया। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि क्यों न हम सभी जनकनंदिनी सीता को साथ लेकर श्रीराम और लक्ष्मण के पास चलें और उन्हें इस जीत की खबर दें।
लंका विजय की ओर अग्रसर वानर सेना के बीच, एक गंभीर विचार-विमर्श चल रहा था। हनुमान जी के द्वारा लंका की खबरें लाने के बाद, अंगद के मन में एक बड़ा ही उत्साहजनक विचार आया।
अंगद ने कहा, “हमें लंका जीतनी चाहिए और सीता माँ को मुक्त कराना चाहिए।” उनके इस संकल्प का समर्थन दो अत्यंत बलवान वानर, मैन्द और द्विविद ने किया, जिन्हें पूर्वकाल में ब्रह्माजी से विशेष वरदान प्राप्त था कि उन्हें कोई मार नहीं सकता।
अंगद के इस उत्साह को देखकर, वानर सेना में एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ। लेकिन, वहाँ एक ऐसे भी थे, जिन्होंने इस संकल्प पर विचार करने का निर्णय लिया।
जाम्बवान, जो वानरों और भालुओं के बीच सम्मानित और ज्ञानी थे, उन्होंने अंगद के उत्साह को संयमित किया। उन्होंने कहा, “अंगद, तुम्हारा उत्साह सराहनीय है
हम भारतीय इतिहास और महाकाव्यों की गाथाओं को जीवंत करते हैं। आज की कहानी में हम बात कर रहे हैं वीर अंगद के लंका जीतने के उत्साहपूर्ण विचार और जाम्बवान के द्वारा उसका निवारण कैसे किया।
जैसा कि हनुमान जी ने अपने पराक्रम से लंका को फूंक डाला था, यह बात सबलोगों ने सुनी। इसी तरह के उत्साह से भरे अंगद ने अपने साथियों से कहा कि वह अकेला ही लंका को जीत सकता है।
अंगद बोले “मैं अकेला ही राक्षसों सहित समस्त लंकापुरी का विध्वंस करने और महाबली रावण को मार डालने के लिए पर्याप्त हूँ।”
उनके इस उत्साह को सुनकर जाम्बवान ने समझाया कि यह कार्य श्री राम की इच्छा के अनुरूप नहीं है।
जाम्बवान बोले “हे महाकपे! भले ही तुममें अपार शक्ति है, लेकिन यह कार्य हमारे लिए उचित नहीं है। श्रीराम ने स्वयं ही सीता को जीतकर लाने की प्रतिज्ञा की है, उसे हम कैसे तोड़ सकते हैं?”
जाम्बवान की बातें सुनकर अंगद ने समझा कि उनका उत्साह भले ही सही हो, लेकिन उन्हें श्रीराम की इच्छा का सम्मान करना चाहिए।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि भले ही हममें कितनी भी शक्ति क्यों न हो, धैर्य और समर्पण भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अंगद की बातों में उत्साह था, लेकिन जाम्बवान की समझ ने उन्हें सही मार्ग दिखाया।
यहाँ जाम्बवान, जो कि बुद्धिमानी में किसी से कम नहीं थे, उन्होंने अंगद के इस उत्साह को थोड़ा ठंडा करते हुए समझाया कि श्रीराम ने हमें केवल सीता की खोज करने के लिए भेजा था, उन्हें वापस लाने के लिए नहीं।
जाम्बवान ने कहा, “महाकपे! तुम्हारे उत्साह की मैं सराहना करता हूँ, लेकिन श्रीराम और सुग्रीव ने हमें जो कार्य सौंपा है, हमें उसे ही पूरा करना चाहिए। श्रीराम का निर्णय हमेशा उचित और कुल के अनुकूल होता है।”
अंगद ने जाम्बवान की बात मानी और सभी ने निश्चय किया कि वे श्रीराम की आज्ञा का पालन करेंगे और सीता माता को वापस लाने के लिए श्रीराम के अगले आदेश का इंतजार करेंगे।
दोस्तों, इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि कभी-कभी, उत्साह में आकर हम बड़े फैसले ले लेते हैं, लेकिन इंतज़ार और धीरज रखना ज़रूरी है।