सचेतन:बुद्धचरितम्-4 “अन्तःपुरविहार”
शाक्यराज के राज्य में एक बालक का जन्म हुआ जिसे देखकर सभी लोगों के मन में बड़ी खुशी और उमंग भर गई। बालक के जन्म के साथ ही राज्य में संपत्ति और समृद्धि अपने आप बढ़ने लगी, जैसे बरसात के पानी से नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। धन-धान्य, हाथी, घोड़े सब कुछ बढ़ने लगे और राज्य चोर और शत्रुओं से मुक्त हो गया।
राजा ने बालक का नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा। सिद्धार्थ शब्द का अर्थ है, ‘जिसने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो’ या ‘जिसे (अस्तित्व का) अर्थ मिल गया हो’. यह शब्द संस्कृत के दो शब्दों ‘सिद्ध’ और ‘अर्थ’ से मिलकर बना है. ‘सिद्ध’ का अर्थ है ‘पूर्ण’ और ‘अर्थ’ का अर्थ है ‘अर्थ या संपत्ति’। यह नाम उसे इसलिए दिया गया क्योंकि उसके जन्म से राज्य में सभी का कल्याण होने लगा था। उसकी माता, माया देवी, अपने पुत्र की महानता और प्रभाव को देखकर इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्हें धरती पर रहने में कठिनाई होने लगी और वे स्वर्ग चली गईं। सिद्धार्थ की माता की मृत्यु उनके जन्म के कुछ ही समय बाद हो गई थी। इसके बाद, उनकी माता की बहन, जिसे मौसी कहते हैं, जिसका नाम महाप्रजापति गौतमी था उसने सिद्धार्थ की देखभाल की और उन्हें अपने सगे बच्चे की तरह पाला।
सिद्धार्थ तेजी से बढ़ने लगे, जैसे शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की चांदनी बढ़ती है। जब वह बड़े हुए, तो उन्होंने अपने कुल के अनुसार सभी शिक्षाएँ और विद्याएँ बहुत ही कम समय में सीख लीं। यह सब कुछ उन्होंने उपनयन और अन्य संस्कारों के बाद किया जो उन्हें एक सुसंस्कृत युवा में परिवर्तित कर दिया।
राजा शुद्धोदन चाहते थे कि उनका पुत्र उनकी तरह एक महान राजा बने और कभी राजमहल छोड़कर वन की ओर न जाए। इसलिए, उन्होंने सिद्धार्थ की शादी यशोधरा नाम की सुंदर कन्या से करवा दी, जिससे कि सिद्धार्थ की रुचि राजसी जीवन में बनी रहे।
सिद्धार्थ का जीवन महल में बहुत ही वैभवशाली था। महल की स्त्रियां, जो अत्यंत सुंदर और कलाकुशल थीं, उनके मनोरंजन के लिए हमेशा तैयार रहती थीं। वे तूर्य और वीणा की मधुर ध्वनियों के बीच विहार करते थे, और युवतियां अपनी अदाओं से उन्हें रिझाने का प्रयास करतीं। राजा ने यह सब इसलिए व्यवस्थित किया था क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि गौतम का मन किसी प्रकार की कठिनाइयों या दुखद दृश्यों से विचलित हो।
बुद्ध के जीवन की एक महत्वपूर्ण और भावनात्मक घटना तब घटित हुई जब उनकी पत्नी यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया। यशोधरा, जिनकी सद्गुणों की सदा ही सराहना की जाती थी, ने उस पुत्र का नाम ‘राहुल’ रखा, क्योंकि उसका मुख राहु ग्रह के समान गंभीर और आकर्षक लग रहा था। इस पुत्र के जन्म से राजा शुद्धोदन को अपने वंश के विस्तार का विश्वास मजबूत हुआ। उन्हें लगा कि जैसे उन्हें अपने पुत्र सिद्धार्थ में खुशी मिली, वैसे ही उनके पौत्र राहुल में भी खुशी की अनुभूति हुई।
राजा ने इस अवसर पर अपने हृदय से प्रार्थना की कि उनके पुत्र और पोते के बीच भी वही प्रेम और आत्मीयता का बंधन हो जो स्वयं उन्हें अपने पुत्र से था। वे चाहते थे कि उनका परिवार सदा सुखी और समृद्ध रहे। उन्होंने विविध धर्मिक क्रियाएँ कीं और सत्पुरुषों द्वारा प्रतिपादित विविध धार्मिक प्रथाओं का पालन किया। राजा ने हर संभव प्रयास किया कि उनका पुत्र सिद्धार्थ सांसारिक और राजसी जीवन में ही रुचि रखें और कभी वैराग्य की ओर न मुड़ें। वे नहीं चाहते थे कि सिद्धार्थ वन की ओर जाएं और संन्यासी बनें।
इस प्रकार, राहुल के जन्म ने न केवल राजा शुद्धोदन के हृदय में खुशी भर दी, बल्कि उन्हें अपने वंश के भविष्य के प्रति एक नई उम्मीद भी दी। यह घटना उनके लिए बहुत ही खास थी, क्योंकि इसने उन्हें अपने परिवार की परंपरा और राजवंश को आगे बढ़ाने का आश्वासन दिया।
तो यह सर्ग अन्तःपुरविहार था जिसका मतलब है, घर के अंदर का वह हिस्सा जहां रानियां या महिलाएं रहती हैं और इस प्रकार, सिद्धार्थ का जीवन एक समृद्ध और सुरक्षित परिवेश में बीत रहा था, जहाँ उन्हें सांसारिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी।