सचेतन 2.106 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान जी के आत्मसंदेह का वर्णन

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हनुमान जी की समाधानकारी सोच 

सचेतन के इस विचार के सत्र में श्रोतागण, आप सुन रहे हैं ‘हनुमान की कहानियाँ’। नमस्कार और स्वागत है आपका “विचार की गहराई” में। आज की कथा है समर्पित एक महान वीर की चिंता और उसके द्वारा पाए गए उत्तार। हम बात करेंगे वानरराज हनुमान जी की चिंता और उनके द्वारा अपनी भूमिका के लिए किया गया निवारण के बारे में।

हनुमान जी ने जब देखा कि सारी लङ्कापुरी जल रही है, और राक्षसों को अत्यंत भयभीत देखा, उनके मन में सीता माँ के दग्ध होने की आशंका से बड़ी चिंता हुई।

साथ ही उन्हें अपने प्रति घृणा-सी महसूस होने लगी, और वे अपने कर्तव्य को भूलने लगे। उनके मन में बार-बार एक ही सवाल उठ रहा था, “मैंने लंका को जलाते समय यह कैसा कुत्सित कर्म कर डाला?”

हनुमान जी के आत्मसंदेह का वर्णन सुनना चाहिए।

आत्मसंदेह – यहाँ हम जीवन के उतार-चढ़ाव, आत्म-अन्वेषण और आत्मसंदेह के विषय में चर्चा करते हैं। आज की हनुमान जी की कहानी आत्मसंदेह के चिरंजीवी मुद्दे पर है।

जीवन में, क्या आपको कभी वह क्षण आया है जब आपने अपने निर्णयों पर संदेह किया हो? क्या आपके मन में कभी आत्मसंदेह की भावना उठी है? यह एक सामान्य मुद्दा है, जो हर किसी के जीवन में आ सकता है। हम सभी कभी-कभी अपने कार्यों, विचारों और निर्णयों पर संदेह करते हैं। कई बार हमारे मन में एक सवाल उठता है – क्या हमने सही किया है? क्या हमारा निर्णय उचित था? इस संदेह से हम अपने आप को खो देते हैं और आत्मसंदेह के जंगल में खो जाते हैं।

आत्मसंदेह का सामना करना कभी-कभी अत्यंत कठिन हो सकता है। यह हमें हमारे मार्ग पर संवेदनशीलता और निर्णय लेने की क्षमता की आवश्यकता को याद दिलाता है। हमें यह याद दिलाना होता है कि हम लोहे की तरह हमारे निर्णयों को संदेह के आगे जलाने के लिए प्रतिस्थापित नहीं होना चाहिए।

आत्मसंदेह एक आवाज है जो हमें हमारे निर्णयों को पुनः समीक्षा करने के लिए प्रेरित करती है। यह हमें हमारे आत्मा के गहराई में खोने की ज़रूरत होती है। 

हनुमान जी अपनी बुद्धि की खोटाई और अपने क्रोध के कारण अपने आप पर घृणा करने लगे। वे सोचने लगे कि क्या क्रोध से भर जाने पर कोई भी पुरुष पाप नहीं करता?

हनुमान जी की समाधानकारी सोच का वर्णन भी सुनना चाहिए। 

उन्होंने समझा कि क्रोध से भरे हुए मन को केवल क्षमा से ही निकाला जा सकता है, और इसी प्रकार वे अपने आत्मसंदेह का समाधान करने लगे।

हनुमान जी ने समझा कि उनकी बुद्धि ने उन्हें गलत रास्ते पर ले गया था, और उन्होंने इसे सुधारने का निश्चय किया। उन्होंने समझा कि यह सारी लङ्का जलने से पहले उनके स्वामी के कार्य को पूरा नहीं करना उनका धर्म था।

इस तरह, हनुमान जी ने अपनी चिंता का सामना करके समाधान पाया और अपने कर्तव्य को पूरा किया। उनकी कहानी से हम सभी को यह सिखने को मिलता है कि हमें स्वयं को समीक्षा करने की आवश्यकता होती है, और हमें अपने क्रोध को नियंत्रित करने की जरूरत है।

उनके मन में अपने अवगुणों का आलोचना का विचार बहुत हुआ। वे सोचने लगे कि क्रोध के कारण मैंने क्या किया है? क्या मैंने सीताजी की रक्षा की?

लेकिन फिर हनुमान जी ने देखा कि सीताजी को आग नहीं छू सकती। उन्होंने समझा कि भगवती सीता की पतिव्रता और धर्म की शक्ति से ही उन्हें सुरक्षित किया गया है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, हनुमान जी लंका के भीतर घूम रहे थे, खोजते थे, लेकिन उन्हें लगता था कि वह अपने काम में विफल हो रहे हैं। सीताजी की सुरक्षा में विफल होने का ख़्याल उन्हें बेचैन कर रहा था।

हनुमान जी ने सोचा, “अगर मैंने इस काम में विफलता का सामना किया, तो मैं खुद को सजीव आग में क्यों नहीं ढकेल देता? क्या मैं समुद्र में जल-जीवनों को अपना शरीर समर्पित कर दूं?” हनुमान जी को लगा कि उनकी अयोग्यता कार्य को अविवेकपूर्ण बना रही है।

लेकिन फिर उन्हें स्वयं को साकार आग में क्यों नहीं डालना चाहिए, यह भी सोचने पर आया। वे अपनी अयोग्यता का दोष बताते हुए महाराज सुग्रीव, श्रीराम और लक्ष्मण के साथ कैसे मुख दिखा सकेंगे, यह सोच रहे थे।

वे यह भी सोच रहे थे कि उनकी गलती से सीताजी को नुकसान पहुंचा है, तो श्रीराम और लक्ष्मण भी नुकसान पाएंगे। यह सोचकर हनुमान जी को बड़ा पछताया।

लेकिन फिर उन्हें अच्छे शकुन मिले। उन्होंने समझा कि सीताजी की रक्षा भगवान श्रीराम की शक्ति और सीताजी के पातिव्रत्य की शक्ति से सुरक्षित है।

उन्होंने समझा कि दाहक अग्नि उन्हें नहीं छू सकती। उन्होंने महात्मा चारणों से भी यह सुना कि लंका की आग से सीताजी को कोई चोट नहीं पहुंची है।

इस प्रकार, हनुमान जी ने अपनी चिंता का समाधान पाया। उन्होंने समझा कि सीताजी की सुरक्षा भगवान श्रीराम के बल और सीताजी के पातिव्रत्य से सुरक्षित है।

इस प्रकार, हनुमान जी ने सीताजी की सुरक्षा के लिए अपना प्राण नहीं गंवाया और अपने कार्य को सफलतापूर्वक पूरा किया।

इसके बाद हनुमान जी के मन में बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने समझा कि सीताजी को कोई चोट नहीं पहुँची है। इससे उनकी चिंता दूर हुई और वे आराम से लौट आए।

ऐसी ही रोचक कहानियों के लिए हमारे साथ बने रहें। धन्यवाद!”

यहां हम आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव के साथ-साथ मन के शांति और समाधान की बात करते हैं। हम बात करेंगे “समाधानकारी सोच” के बारे में।

समाधानकारी सोच, जिसे अंग्रेजी में “Solution-Oriented Thinking” कहा जाता है, एक ध्यानार्थी मानसिकता है जो हमें समस्याओं के समाधान की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करती है। यह हमें अपनी सोच को पॉजिटिव और सकारात्मक बनाने में मदद करती है और हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

अक्सर हम सभी अपने दिनचर्या के दौरान अनेक समस्याओं का सामना करते हैं। लेकिन समाधानकारी सोच वह उपाय है जो हमें इन समस्याओं का समाधान खोजने में मदद करता है।

समाधानकारी सोच हमें समस्याओं को समाधान ढूंढने के लिए विभिन्न पहल करने की प्रेरणा देती है। यह हमें निराशा नहीं करने देती, बल्कि हमें इन्हें बदलने की प्रेरणा देती है।

समाधानकारी सोच हमें हर समस्या को एक अवसर में बदलने की क्षमता प्रदान करती है। यह हमें सीधे ही उत्तर ढूंढने के बजाय नये, नवीन, और निराकार दृष्टिकोण से समस्याओं का सामना करने की क्षमता प्रदान करती है।

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