सचेतन 2.46: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता

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सचेतन 2.46: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता

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आशंका की दशा में कोई भी कार्य करना दुष्कर प्रतीत होता है 

सीताजी के नाश की आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता, श्रीराम को सीता के न मिलने की सचना देने से अनर्थ की सम्भावना देख हनुमान का पुनः खोजने का विचार करना।
आशंका यानी किसी अनिष्ट की सम्भावना से मन में होने वाली कल्पना। 
‘शंका’ और ‘आशंका’ में वर्तमान और भविष्य का अंतर है, वर्तमान में कुछ गड़बड़ या अमंगल की भावना हो तो शंका होती है, पर जब वर्तमान के बजाय भविष्य में कुछ बुरा या अमंगल की भावना पैदा होती है तो समझिए कि बात आशंका की है।
शंका से आपत्ति, जिज्ञासा आदि का उत्पन्न होता है लेकिन आशंका- वह चिंतापूर्ण मानसिक स्थिति जो वास्तविक या कल्पित अनिष्ट की संभावना होने पर उत्पन्न होती है और जिसमें मनुष्य भयभीत तथा विकल हो जाता है।
वानरयूथपति हनुमान् विमान से उतरकर महल के परकोटे पर चढ़ आये। वहाँ आकर वे मेघमाला के अंक में चमकती हुई बिजली के समान बड़े वेग से इधर-उधर घूमने लगे। घनमाला में विद्युत् की उपमा से यह ध्वनित होता है कि रावण का वह परकोटा इन्द्रनीलमणि का बना हुआ था और उस पर सुवर्ण के समान गौर कान्तिवाले हनुमान जी विद्युत् के समान प्रतीत होते थे।
रावण के सभी घरों में एक बार पुनः चक्कर लगाकर जब कपिवर हनुमान जी ने जनकनन्दिनी सीता को नहीं देखा, तब वे मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे – मैंने श्रीरामचन्द्रजी का प्रिय करने के लिये कई बार लंका को छान डाला; किंतु सर्वांगसुन्दरी विदेहनन्दिनी सीता मुझे कहीं नहीं दिखायी देती हैं। 
मैंने यहाँ के छोटे तालाब, पोखरे, सरोवर, सरिताएँ, नदियाँ, पानी के आस-पास के जंगल तथा दुर्गम पहाड़- सब देख डाले। इस नगर के आसपास की सारी भूमि खोज डाली; किंतु कहीं भी मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ।
गृध्रराज सम्पाति ने तो सीताजी को यहाँ रावण के महल में ही बताया था। फिर भी न जाने क्यों वे यहाँ दिखायी नहीं देती हैं। क्या रावण के द्वारा बलपूर्वक हरकर लायी हुई विदेह-कुलनन्दिनी मिथिलेशकुमारी जनकदुलारी सीता कभी विवश होकर रावण की सेवा में उपस्थित हो सकती हैं (यह असम्भव है)। 
मैं तो समझता हूँ कि श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से भयभीत हो वह राक्षस जब सीता को लेकर शीघ्रतापूर्वक आकाश में उछला है, उस समय कहीं बीच में ही वे छूटकर गिर पड़ी हों। अथवा यह भी सम्भव है कि जब आर्या सीता सिद्धसेवित आकाशमार्ग से ले जायी जाती रही हों, उस समय समुद्र को देखकर भय के मारे उनका हृदय ही फटकर नीचे गिर पड़ा हो। 
अथवा यह भी मालूम होता है कि रावण के प्रबल वेग और उसकी भुजाओं के दृढ़ बन्धन से पीड़ित होकर विशाललोचना आर्या सीता ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया है। ऐसा भी हो सकता है कि जिस समय रावण उन्हें समुद्र के ऊपर होकर ला रहा हो, उस समय जनककुमारी सीता छटपटाकर समुद्र में गिर पड़ी हों। अवश्य ऐसा ही हुआ होगा। 
अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि अपने शील की रक्षा में तत्पर हुई किसी सहायक बन्धु की सहायता से वञ्चित तपस्विनी सीता को इस नीच रावण ने ही खा लिया हो अथवा मन में दुष्ट भावना रखने वाली राक्षसराज रावण की पत्नियों ने ही कजरारे नेत्रोंवाली साध्वी सीता को अपना आहार बना लिया होगा। 
हाय! श्रीरामचन्द्रजी के पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर तथा प्रफुल्ल कमलदल के सदृश नेत्रवाले मुख का चिन्तन करती हुई दयनीया सीता इस संसार से चल बसीं। 
हा राम! हा लक्ष्मण! हा अयोध्यापुरी! इस प्रकार पुकार-पुकार कर बहुत विलाप करके मिथिलेशकुमारी विदेहनन्दिनी सीता ने अपने शरीर को त्याग दिया होगा। अथवा मेरी समझ में यह आता है कि वे रावण के ही किसी गुप्त गृह में छिपाकर रखी गयी हैं। हाय! वहाँ वह बाला पीजरे में बन्द हुई मैना की तरह बारम्बार आर्तनाद करती होगी। जो जनक के कुल में उत्पन्न हुई हैं और श्रीरामचन्द्रजी की धर्मपत्नी हैं, वे नील कमल के-से नेत्रोंवाली सुमध्यमा सीता रावण के अधीन कैसे हो सकती हैं ? 
जनककिशोरी सीता चाहे गुप्त गृह में अदृश्य करके रखी गयी हों, चाहे समुद् रमें गिरकर प्राणों से हाथ धो बैठी हों अथवा श्रीरामचन्द्रजी के विरह का कष्ट न सह सकने के कारण उन्होंने मृत्यु की शरण ली हो, किसी भी दशा में श्रीरामचन्द्रजी को इस बात की सूचना देना उचित न होगा; क्योंकि वे अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते हैं।
इस समाचार के बताने में भी दोष है और न बताने में भी दोष की सम्भावना है, ऐसी दशा में किस उपाय से काम लेना चाहिये? मुझे तो बताना और न बताना—दोनों ही दुष्कर प्रतीत होते हैं। 
ऐसी दशा में जब कोई भी कार्य करना दुष्कर प्रतीत होता है, तब मेरे लिये इस समय के अनुसार क्या करना उचित होगा?’ इन्हीं बातों पर हनुमान जी बारम्बार विचार करने लगे। 
(उन्होंने फिर सोचा—) यदि मैं सीताजी को देखे बिना ही यहाँ से वानरराज की पुरी किष्किन्धा को लौट जाऊँगा तो मेरा पुरुषार्थ ही क्या रह जायगा? फिर तो मेरा यह समुद्रलंघन, लंका में प्रवेश और राक्षसों को देखना सब व्यर्थ हो जायगा। 
किष्किन्धा में पहुँचने पर मुझसे मिलकर सुग्रीव, दूसरे-दूसरे वानर तथा वे दोनों दशरथ राजकुमार भी क्या कहेंगे?

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