सचेतन, पंचतंत्र की कथा-11 : आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा

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नमस्कार दोस्तों, स्वागत है! आज हम सुनाएंगे एक रोचक और शिक्षाप्रद पंचतंत्र की कहानी, आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा

पंचतंत्र के लेखक विष्णुशर्मा एक विद्वान ब्राह्मण थे। हालांकि कुछ लोग उनके अस्तित्व पर संदेह करते हैं, लेकिन पंचतंत्र के मूल ग्रंथ में उनका नाम लेखक के रूप में दिया गया है, जिसका कोई विरोधाभास नहीं दिखता। उनके बारे में विस्तृत जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन पंचतंत्र के शुरुआती अध्यायों से इतना जरूर पता चलता है कि वे नीतिशास्त्र के पारंगत विद्वान थे। जब उन्होंने पंचतंत्र की रचना की, तब वे लगभग 80 वर्ष के थे और उनके पास नीतिशास्त्र का परिपक्व अनुभव था। उन्होंने स्वयं कहा है कि इस ग्रंथ की रचना का उद्देश्य अत्यंत बुद्धिमत्ता से लोगों का कल्याण करना है। उनकी मानसिकता हर प्रकार के भौतिक आकर्षण से मुक्त थी, और वे अपने जीवन के अंतिम काल में समाज के कल्याण के लिए समर्पित हो गए थे।

विष्णुशर्मा ने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास, और चाणक्य जैसे विद्वानों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्र को मथकर पंचतंत्र की रचना की। यह एक प्रकार का नवनीत (मक्खन) है जिसे उन्होंने लोगों के कल्याण के लिए प्रस्तुत किया।

इस ग्रंथ की महत्ता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि इसे “अमृत” की संज्ञा दी गई है। प्राचीन ईरानी सम्राट खुसरो के प्रमुख राजवैद्य और मंत्री बुजुए ने इसे अमृत कहा है। उन्होंने सुना था कि भारत में एक पहाड़ है जहाँ संजीवनी नामक औषधि मिलती है, जिसके सेवन से मृत व्यक्ति भी जीवित हो जाते हैं। इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर वे 550 ई. के आसपास भारत आए और संजीवनी की खोज शुरू की। जब उन्हें वह औषधि नहीं मिली, तब उन्होंने एक भारतीय विद्वान से पूछा, “अमृत कहाँ है?” उस विद्वान ने उत्तर दिया, “अमृत तो तुम्हारे सामने है। यह ज्ञान ही अमृत है, और यह विद्वान व्यक्ति ही वह पर्वत है जहाँ संजीवनी जैसी बौद्धिक औषधि पाई जाती है। इसके सेवन से मूर्ख व्यक्ति भी फिर से जीवन प्राप्त कर लेता है।”

इस प्रकार, विष्णुशर्मा का पंचतंत्र एक अद्भुत ज्ञान का संग्रह है, जो अपने नैतिक, सामाजिक, और व्यावहारिक उपदेशों से लोगों को जीवन जीने का सही मार्ग दिखाता है। यह ग्रंथ न केवल प्राचीन भारत में बल्कि अन्य देशों में भी ज्ञान का अमूल्य स्रोत बना रहा और आज भी इसका महत्व बना हुआ है।

यह कहानी प्राचीन भारतीय कथा साहित्य की एक प्रसिद्ध कथा है जिसमें मुख्य पात्र देव शर्मा नामक संन्यासी और आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त ठग है। यह कहानी मनुष्य के स्वभाव, लोभ और विश्वासघात के बारे में बहुत महत्वपूर्ण सीख देती है। आइए इस कथा को विस्तार से समझते हैं।

कहानी की शुरुआत: किसी एकांत प्रदेश में एक मठ था जहाँ देव शर्मा नामक एक परिव्राजक (घुमंतू साधू) रहते थे। देव शर्मा के पास गाँव के कई साहूकारों द्वारा दिए गए महीन वस्त्रों को बेचकर काफी धन इकट्ठा हो गया था। वे किसी पर भरोसा नहीं करते थे और हमेशा अपनी धन की थैली को अपनी बगल में रखते थे। वे इसे रात-दिन अपने पास ही रखते थे, शायद यह सोचकर कि किसी पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं।

धूर्त आषाढ़भूति की योजना: उसी गाँव में आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त व्यक्ति रहता था, जो दूसरे का धन चुराने में माहिर था। उसकी नजर हमेशा से देव शर्मा की धन-थैली पर थी। एक दिन उसने उस थैली को देखकर सोचा कि उसे इस संन्यासी का धन चुराने का कोई तरीका ढूंढना चाहिए। उसने सोचा कि चूंकि मठ की दीवारें बहुत मजबूत हैं और दरवाजा ऊँचा है, इसलिए सेंधमारी या चुपके से भीतर घुसना संभव नहीं है। इसीलिए उसने कपट की योजना बनाई। उसने निश्चय किया कि वह किसी तरह से देव शर्मा का विश्वास जीतकर उनका शिष्य बन जाएगा। इस तरह से वह उम्मीद करता था कि एक दिन संन्यासी उसे अपने धन के करीब जाने देगा।

संन्यासी का विश्वास जीतने की कोशिश: आषाढ़भूति देव शर्मा के पास गया और विनम्रता से ‘ओं नमः शिवाय’ का जाप करते हुए उनसे कहा, “भगवान, यह संसार असार है। जीवन एक पहाड़ी नदी की तेजी की तरह है, जो जल्दी ही बह जाता है। यह जीवन फूस की आग के समान अस्थायी है और भोग भी जाड़े के बादलों की छाया की तरह अस्थिर हैं। मैंने सबका अनुभव किया है और अब मैं इस संसार के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ। कृपया मुझे यह बताएं कि मैं कैसे इस संसार-सागर को पार कर सकता हूँ?”

देव शर्मा उसकी बातों से प्रभावित हुए और बोले, “वत्स, तुम धन्य हो कि इतनी कम उम्र में ही तुम्हें वैराग्य की अनुभूति हो गई है। यही सच्ची शांति है। अगर तुम संसार-सागर को पार करने का उपाय जानना चाहते हो, तो मैं तुम्हें शिव मंत्र से दीक्षित कर सकता हूँ।”

आषाढ़भूति की दीक्षा: आषाढ़भूति ने संन्यासी के पांव पकड़कर विनती की, “भगवन, कृपया मुझे दीक्षा दीजिए।” देव शर्मा ने उसे दीक्षा देने का वचन दिया, लेकिन कहा कि उसे रात में मठ के भीतर नहीं सोना होगा। उन्होंने समझाया कि यतियों के लिए अकेलापन प्रशंसनीय है और इसलिए आषाढ़भूति को मठ के दरवाजे पर ही सोना होगा। आषाढ़भूति ने संन्यासी की यह शर्त मान ली और इस तरह उसे शिष्य बना लिया गया।

आषाढ़भूति ने संन्यासी की सेवा कर उनका विश्वास जीतने की पूरी कोशिश की। उसने उनकी हर प्रकार से सेवा की, लेकिन फिर भी संन्यासी ने अपनी धन की थैली को कभी अपने से दूर नहीं किया। आषाढ़भूति ने समझ लिया कि यह संन्यासी कभी भी उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं करेगा।

धोखा देने की योजना: कुछ समय बाद, आषाढ़भूति सोचने लगा कि अगर वह संन्यासी का विश्वास नहीं जीत सकता तो उसे कोई और तरीका अपनाना होगा। उसने सोचा कि वह संन्यासी को दिन में ही मार डाल सकता है या उसे विष देकर उसका धन ले सकता है। लेकिन तभी एक दिन देव शर्मा के एक अन्य शिष्य का लड़का वहां आया और उसने देव शर्मा को अपने घर यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार के लिए आमंत्रित किया। देव शर्मा इस निमंत्रण को खुशी-खुशी स्वीकार कर आषाढ़भूति के साथ उस कार्यक्रम में जाने के लिए निकल पड़े।

कहानी का संदेश: इस कहानी से हमें कई महत्वपूर्ण सीख मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी अजनबी पर तुरंत विश्वास नहीं करना चाहिए, चाहे वह कितना भी अच्छा और विनम्र क्यों न दिखे। आषाढ़भूति ने मीठी बातों से संन्यासी का विश्वास जीतने की कोशिश की, लेकिन उसके इरादे बुरे थे। धन के प्रति मोह और दूसरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने से मनुष्य को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कहानी यह भी दर्शाती है कि धन प्राप्त करना और उसे सुरक्षित रखना हमेशा कठिन होता है। देव शर्मा अपने धन की सुरक्षा को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे और इस चिंता ने उन्हें मानसिक शांति से वंचित कर दिया। अंततः आषाढ़भूति जैसा व्यक्ति उनके विश्वास का फायदा उठाकर उन्हें धोखा देने की कोशिश में था।

इसलिए, यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें अपने जीवन में संयम, सतर्कता और विवेक का पालन करना चाहिए। दूसरों पर विश्वास करना अच्छी बात है, लेकिन जरूरत से ज्यादा विश्वास करने से हमें हानि भी हो सकती है।

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