सचेतन 258: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग जीवन ऊर्जा को रूपांतरित कर देता है
करुण रस में हृदय द्रवित हो जाता है
हम बात कर रहे थे की अध्यात्म यानी एक ऐसी प्रक्रिया जो जीवन और मृत्यु के बारे में नहीं होती यह आध्यात्मिक प्रक्रिया आपके बारे में होती है, जो कि न तो जीवन है और न ही मृत्यु। अगर इसे आसान शब्दों में कहा जाए तो इस पूरी आध्यात्मिकता का मकसद उस चीज को हासिल करने की कोशिश है, जिसे यह धरती आपसे वापस नहीं ले सकती। आपका यह शरीर इस धरती से लिया गया कर्ज है, जिसे यह धरती पूरा का पूरा आपसे वापस ले लेगी। लेकिन जब तक आपके पास यह शरीर है, तब आप इससे ऐसी चीज बना सकते हैं या हासिल कर सकते हैं, जो धरती आपसे वापस न ले पाए।
भाव योग हो या चाहे आप प्राणायाम करें या ध्यान, आपकी ये सारी कोशिशें आपकी जीवन ऊर्जा को एक तरह से रूपांतरित करने का तरीका हैं, ताकि ये शरीर सिर्फ़ मांस बनाने के बजाय कुछ ऐसे सूक्ष्म तत्व का निर्माण कर सके, जो मांस की अपेक्षा ज्यादा टिकाऊ हो।
अगर आप इस सूक्ष्म तत्व को पाने की कोशिश नहीं करेंगे तो जीवन के अंत में जब आपसे कर्ज वसूली करने वाले आएंगे तो वे आपसे सब चीज ले लेंगे और आपके पास कुछ नहीं बचेगा। उसके बाद की आपकी यात्रा का हिस्सा अच्छा नहीं होगा।
भाव योग के उच्चाति-उच्च प्रेम प्रक्रिया में संन्यासी का अर्थ महत्वपूर्ण है जो वैदिक संस्कृति पर आधारित है जिसे सनातन धर्म कहते हैं जो शाश्वत या ‘सदा बना रहने वाला’ माना गया है, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।
सनातन में हो या या योग प्रक्रिया में संन्यास को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है जो सहनशीलता के भाव का परिचायक है। सहनशीलता का भाव केवल कल्पना से संभव नहीं हो सकता है क्योंकि यह सत्य होने का भाव है। कल हमने कहा था की जीवन में ‘सत्’ का कभी अभाव नहीं होना चाहिए और असत का कभी भाव नहीं बनाना चाहिए। भाव सिर्फ़ सत्यता के आधार पर ही संभव है। भाव आपके अत्यन्त सूक्ष्म और उच्चतम प्रेम की पराकाष्टा है जो सिर्फ़ हृदय के पिघलने से हो सकता है।
मानव जीवन में हम सभी गतिशील हैं। गतिशीलता का चक्र ‘शोक’ या ‘दुःख’ से होकर भावना करुणा रस के आधार को धारणा कर लेता है। करुण रस की व्यापकता बहुत विस्तार है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि करुण रस की अनुभूति में एक अद्भुत हृदय भी द्रवित हो जाती है जो बड़ा व्यापक प्रभाव रखती है।
जहाँ-जहाँ भक्त अपनी दृष्टि से भाव की बात कहता है, वहीं वह भगवान के यथार्थ प्रभाव की ही बात कहता है, कल्पनाशीलता की भावना से नहीं अपितु अपने मन से मिलना एक ऐसा योग होना जिसमें प्राणों का भी विलय हो जाता है और हम ईश्वर के लिये ही अपने शारीरिक कर्मो का भी उत्सर्ग कर देते हैं।
भगवान् कहते हैं-
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब के ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
अस सज्जन मम उर बस केैसें । लोभी हृदय बसइ धनु जैसें॥
श्रीरामचरितमानस में यह कहा गया है की जो भक्त स्त्री, पुत्र, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, मैं उन्हें छोड़ने का विचार ही कैसे कर सकता हूँ।
सब पदार्थों में से ममत्व निकालकर तन, मन, धन-सभी, सब कुछ सर्वभावेन भगवान के चरणों में अर्पितकर भक्त निःस्पृह और निरीह हो जाता है।
मोक्ष की इच्छा रखने वाले मन ही जब श्रीहरि के चरणों में समर्पित हो जाता है, तब मोक्ष की इच्छा का उदय ही कैसे हो ?
ऐसे सर्वथा निष्काम अर्पित आत्मा को उपदेवता आदि का भय ही नहीं होता कि वे आकर तंग करेंगे। उसके पथ में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता। साधना का प्रारम्भ ही भावना से होता है।