सचेतन 107 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है

SACHETAN  > Shivpuran >  सचेतन 107 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है

सचेतन 107 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है

| | 0 Comments

पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 84 लाख योनियों में चलता है और उनमें से सिर्फ एक मनुष्य योनि है। केवल मनुष्य के रूप में, सही समय पर सही कर्म कर हम अपनी नियति के बारे में कुछ करने की स्थिति में होते हैं। सकारात्मक कर्मों, शुद्ध विचारों, प्रार्थना, मंत्र और ध्यान के माध्यम से, हम वर्तमान जीवन में कर्म के प्रभाव को सुलझाने और भाग्य को बेहतर बनाने के लिए उसे बदल सकते हैं। 

जब आप एक आध्यात्मिक जीवन के अनुक्रम को जानते हैं, जिसमे हमारे कर्म का फल प्राप्त होगा, हमारी सहायता कर सकता है। मनुष्य के रूप में अच्छे कर्म के अभ्यास के द्वारा हमारे पास हमारी आध्यात्मिक प्रगति की गति को त्वरित करने के अवसर हैं। ज्ञान और स्पष्टता की कमी के कारण हम नकारात्मक कर्म को जन्म देते हैं। 

दयाहीनता खराब फल पैदा करती है, जिसे पाप कहते हैं और अच्छे कर्म से मीठे फलों की प्राप्ति होती है, जिसे पुण्य कहते हैं। जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही बनता है: पवित्र कर्म करके व्यक्ति पवित्र बनता है और बुरे कर्म करके बुरा। 

कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है। हम क्या संचय करना चाहते हैं और उस कर्म के फल का ‘प्रारब्ध’ कैसा होगा जिससे हमारे वर्तमान कर्म ‘क्रियमाण’ का निर्धारण हो सकेगा।    

संचित कर्म – संचित अर्थात संग्रहित, संग्रहित अर्थात स्टोर। वह कर्म जो स्टोर हो रहे हैं वह संचित कर्म कहे जाते हैं। बार बार एक ही कर्म या कार्य करने से वह कर्म या कार्य स्टोर हो जाता है। मरने के समय इस स्टोर कर्म का कुछ भाग हमारे साथ अगले जन्म में भी चला जाता है। संचित कर्म का अनुभव प्राप्त करना और एक ही जीवन में सभी कर्मों का फल भुगतना असंभव है। 

‘प्रारब्ध’ का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो।

यानी संचित कर्म के इस भंडार से पूरे एक जीवन के लिए मुट्ठी भर निकाल लिया जाता है और यह मुट्ठी भर कर्म, जो कि फल को भोगना शुरू कर देता है और उसका फल भोग लेने के बाद वह समाप्त हो जाता है और दूसरे प्रकार से नहीं रहता है, यह प्रारब्ध कर्म के रूप में जाना जाता है।

प्रारब्ध फल-वहन करनेवाला कर्म संचित कर्म का हिस्सा होता है जो पक जाते ही वर्तमान जीवन में विशेष समस्या के रूप में प्रकट होता है।

क्रियमाण वह सबकुछ है जो हम वर्तमान जीवन में करते हैं। सभी क्रियमाण कर्म संचित कर्म में प्रवाहित होते है और फलस्वरुप हमारे भविष्य का आकार ग्रहण करते है। केवल मानव जीवन में हम अपने भावी भाग्य को बदल सकते हैं। मृत्यु के बाद हमारी क्रिया शक्ति (काम करने की क्षमता) समाप्त हो जाती है और तब तक कार्य (क्रियामन) करते हैं जब तक कि दोबारा मानव देह में जन्म नहीं होता।

सचेत होकर किए गए कार्य कहीं अधिक गंभीर होते हैं, बजाए बिना सोचे-समझे किए गए कार्य के। ठीक उसी तरह जिस तरह अनजाने में खा लिया गया जहर हमें प्रभावित करता है, धोखे से दिया गया जहर भी उपयुक्त कार्मिक प्रभाव ही देगा। केवल मनुष्य ही सही से गलत का अंतर करते हुए (क्रियामन) कर्म कर सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *