सचेतन 217: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कला से मनोवृत्तियों में रुपान्तरण होता है
कला के द्वारा हमारी आत्म को परमानन्द का अनुभव होता है।
कल हमने भगवान विष्णु तथा कृष्ण की प्रचलित कथा भगवद्गीता को ध्यान करते हुए विश्वरूप दर्शन का ज़िक्र किया था वैसे तो ईश्वर के अनेक अलौकिक रूप, आकृति तथा रंग हैं, सिर्फ़ प्रश्न यह है की हम कैसा रूप देखना चाहते हैं और याद रखें की सभी रूप हमारे शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित होता है।
यह विचार और कर्म ही हमारी माया है और इन दोनों के प्रेरक ईश्वर शिव हैं। माया यानी आपकी प्रकृति महेश्वर की शक्ति है। ज़रूरत है चित्स्वरूप प्रकृति यानी इस महेश्वर की शक्ति की माया को शुद्धता से आच्छादित करने की और आप अनुभव करेंगे की आपका जीव स्वत: शिव होता जाएगा। यह विशुद्धता का भाव ही शिवत्व है।
हमारी सर्वव्यापी चेतन को आपकी प्रकृति है या कहें की यह महेश्वर की शक्ति यानी माया जो आपको आवृत करती है। और यही आवरण कला है। जब हम कला कहते हैं तो इसका तात्पर्य है की रेखा, आकृति, रंग, ताल तथा शब्द, जैसे– रेखाचित्र, रंजनकला, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत, कविता एवं साहित्य लेकिन कला के इस रूप में मानव की प्रवृत्तियों का बाहारी अभिव्यक्ति हैं। सच तो यह है की कला न ज्ञान हैं, न शिल्प हैं, न ही विद्या हैं, बल्कि कला के द्वारा हमारी आत्म परमानन्द का अनुभव होता है।
प्रायः हमारा अधिकतर कर्म भोग के लिये किया गया होता है उसके आवरण में कर्म का कारण होता है। और यह कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ऐसा आवरण बना देता है की हम अपने ही विराट और विश्व रूप से दूर हो जाते हैं। हमारी सभी कला, विद्या, राग, काल और नियति कर्मफल उपभोग करता है ना की आत्म परमानन्द का अनुभव करती हैं।
जब कोई व्यक्ति वास्तविक और अवास्तविक में अंतर करने की कला जानता है और स्रोत को देखता है तो यहाँ से ही कला की शक्ति का विकास संभव होता है जो हमसभी को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा सकता है जहां सिर्फ़ मनुष्य केवल मनुष्य ही रह जाते हैं। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदार बनाती है। वह व्यक्ति को “स्व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” से जोड़ती है।
कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ को उभारने की प्रक्रिया की जा सकती है, उसे प्रवृत्तियों में ढाल सकता है, तथा चिंतन को मोड़ सकता है, कला में अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है, जिसमें मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है।
आप जिस पाश्चात्य जगत की परिभाषा में कला जैसे स्थापत्य कला (Architecture), मूर्त्तिकला (Sculpture), चित्रकला (Painting), संगीत (Music), काव्य (Poetry), नृत्य (Dance), रंगमंच (Theater/Cinema) को कला समझते हैं तो यह कला का बहुत संकीर्ण उदाहरण है।
कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है की कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति से ही कला उत्पन्न हो होती है।
कला जीवन के ऊर्जा का महासागर है। जब हमारी अंतश्चेतना जाग्रत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है।
कला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं, इतनी विशाल इतनी विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे हुए है।