सचेतन 201: शिवपुराण- वायवीय संहिता ॰॰ जब जागो तभी सवेरा
ब्रह्म यानी ब्रह्मांड का परम सत्य या फिर इस जगत का सार
योग और ध्यान को जीवन चर्या में लाने से आपके आत्मा ज्ञान का मार्ग प्रस्तत होता है और इसके लिए स्वयं का प्रयास शुरू करना होगा। योग और ध्यान के बल से आपको कोई भेदभाव, जाती-पात, ऊँचनीच, सत्कार-तिरस्कार, हानि-लाभ का असर नहीं होगा। आपका सेल्फ कॉन्फिडेंस हमेंशा बढ़ा हुआ बना रहेगा। आपको किसी से किसी का कभी भी भय महसूस नहीं होगा। एक बार जब वह इस अवस्था में पहुंच जाते हैं, तो आप हर किसी को अपने जैसा देखता है, उसे कोई आश्रम, कोई वर्ण (सामाजिक वर्ग), कोई अच्छाई, कोई बुराई, कोई निषेध, कोई आदेश नहीं दिखता। आप अपनी मर्जी से जीते है, आप मुक्त है, और आप दूसरों के बीच भेद और भेदभाव से मुक्त है। यह रूप से परे है, स्वयं से परे है, यह ब्रह्म के साथ एक है। यही मोक्ष या मुक्ति का मार्ग है।
योग और ध्यान भारतीय ज्ञानप्रणाली में उपनिषद के अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को प्रस्तुत करता है। हम कभी भी अपने जीवन को संशोधीत करने का दृष्टिकोण बना सकते हैं। जब जागो तभी सवेरा।
अगर आप अपने जीवन में बदलाव चाहते हैं तो इन प्राचीन उपनिषद ग्रंथों को पढ़ने, समझने और इससे ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश कीजिए। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य है, उसे शांकराद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव और ब्रह्म अलग नहीं हैं। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में “अहं ब्रह्मास्मि” ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है।
हम जीवित प्राणियों को छूना , उन्हें स्पर्श करना और उनके साथ रहना पसंद करते हैं , लेकिन उनके निष्प्राण होते ही उनके प्रति हमारी भावनाएं बदल जाती हैं। हम उनके संपर्क तक में नहीं आना चाहते। अगर किसी कारणवश संपर्क में आना भी पड़ता है , तो उसके बाद हम अपने हाथों को धोते हैं , स्नान करते हैं। अपने किसी प्रिय की मृत्यु दुखद होती है , पर जब बात उसके शव को किसी स्थान तक लाने-ले जाने की हो , तो लोग इस काम के लिए अपनी कार तक के इस्तेमाल से बचते हैं। किराए पर गाड़ी ले लेते हैं। कुछ लोग तो शव को अस्पताल से घर भी नहीं लाना चाहते। मुर्दाघर से ही सीधे श्मशान लेकर चले जाते हैं। आखिर किसी के निष्प्राण होते ही उसके प्रति हमारी भावनाएं एकदम बदल क्यों जाती हैं ? इस परिवर्तन की सिर्फ एक ही वजह है और वह है ब्रह्म की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति। वेदांत के सार में भी आत्मा ही है। शंकराचार्य के अनुसार वेदांत का संदेश भी ‘ ब्रह्म सत्यम , जगत मिथ्या ‘ और ‘ जिवो ब्रह्मेव नापराह ‘ में सिमटा है। अर्थात् केवल ब्रह्म सत्य है , बाकी चीजें असत्य हैं और हर जीव में ईश्वर (ब्रह्म) का वास है।
ब्रह्म यानी ब्रह्मांड का परम सत्य या फिर हम कहें की इस जगत का सार है। ब्रह्म दुनिया की आत्मा है। वो ब्रह्मांड का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
जब बच्चे या किसी भी जीव का जन्म होता है तो क्षण भर में ही उसके हृदय में स्पंदन होता है और वह स्पंदन चैतन्य मन से होते हुऐ अवचेतन मन से होते हुऐ अंतर्मन से होते हुऐ मन से होते हुए मस्तिष्क में चेतना के रूप में प्रवेश करती हैं वही आत्मा है।
ब्रह्म मनुष्य है सभी मनुष्य उस ब्रह्म के प्रतिबिम्ब अर्थात आत्मा है सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है। ब्रह्म स्वयं की भाव इच्छा सोच विचार है । ब्रह्म सब कुछ है और जो नहीं है वह ब्रह्म है ।यही अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखों से पानी आता है और हाथ काँटा निकालने के लिए जाता है ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।
मैं ने स्कूल के दिनों एक कहानी पढ़ी थी, जिसका आशय आज अद्वैत सिद्धांत को समझता है। एक बार गुरु नानक मक्का गए और खान-ए-काबा की तरफ पैर करके मैदान में सो गए। वहां के एक अधिकारी ने उन्हें डांटते हुए जगा कर कहा कि तू खुदा की तरफ पैर करके सोने का गुनाह कर रहा है। गुरु नानक साहब ने विनम्रता से उससे कहा कि भाई, जिधर खुदा न हो, मेहरबानी करके उधर ही मेरा पैर कर दो। उस अधिकारी ने उनका पैर उठा कर घुमाना शुरू कर दिया, काफी देर तक वह उनका पैर घुमाता रहा, पर हर जगह उसे खुदा ही नजर आया। थक कर उसने गुरु साहब के पैर छोड़ दिए। इस घटना में कोई ऐतिहासिक तथ्य है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, पर आशय बिल्कुल साफ है -दुनिया को अद्वैत की शिक्षा देना। इस कहानी में अद्वैत की शिक्षा गुरु नानक ने दी, यह भी संयोग नहीं है। असल में भारत ही वह पहला देश है, जहां अद्वैत का दर्शन फला-फूला और परिपक्व हुआ। दूसरे देशों के धर्मों पर कमोबेश इसका प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है।