सचेतन 122 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- जीवन में पवित्र अनुष्ठान करना ही धर्म है

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सचेतन 122 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- जीवन में पवित्र अनुष्ठान करना ही धर्म है

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मन के विचारों से मुक्ति पाने और उन्हें शांत करने का तरीका

भव जो पर्जन्य (मेघ) का सूचक है यह हमारे जीवन में बदलाव होने की अवस्था, क्रिया या भाव जिससे हमें अपनी सत्ता और सांसारिक अस्तित्व, को जन्म या उत्पत्ति करते हैं और यह आदतन या भावनात्मक प्रवृत्तियाँ मात्र है। यह एक मानसिक घटना के रूप में स्वयं की भावना के उत्पन्न होने की ओर ले जाता है।

आज आदि शंकराचार्य जी की जयंती है। उन्होंने कहा है कि स्वयं से मुक्त पाने के लिए ज्ञान आवश्यक है और स्वयं (आत्मन) और ब्रह्म की पहचान का केंद्रीय पद है।

8वीं शताब्दी में मंडन मिश्रा एक हिंदू दार्शनिक थे, जिन्होंने मीमांसा और विचार की अद्वैत प्रणाली को लिखा था। वह आदि शंकराचार्य के समकालीन थे, और कहा जाता है कि वे आदि शंकर के शिष्य बन गए थे, वे 10वीं शताब्दी ईस्वी तक दोनों में से सबसे प्रमुख अद्वैत थे।

आत्म शुक्तम (स्वयं का गीत) में कहा गया है कि मैं चैतन्य हूं, मैं आनंद हूं, मैं शिव हूं, मैं शिव हूं.

यह मेरा सौभाग्य है कि मैं मंडन मिश्र के वंश में जन्मा हूँ और सदियों पूर्व आदि गुरु शंकराचार्य जी का आशीर्वाद प्राप्त कर चुका हूँ।

जब मन कमजोर होता है, स्थिति एक समस्या बन जाती है। जब मन संतुलित होता हो, स्थिति एक चुनौती बन जाती है। जब मन मजबूत हो , स्थिति एक अवसर बन जाती है। यह सब दिमाग का ही खेल है।

कहते हैं की “तत्र स्थितौ-यतनाः अभ्यासः” अभ्यास के द्वारा हम समस्या से निपट सकते हैं, मन को संतुलित करने के लिए शांत और ध्यान मग्न एकाग्रता का अभ्यास क्रेना होता है। बचपन से जब हम छोटी छोटी चुनौती का सामना करना सीखते हैं तो एक दिन मजबूत व्यक्तित्त्व का निर्माण कर लेते हैं। मन की एकाग्रता से हम सभी अवसर पहचान करना सीखते हैं। 

मन को संतुलित करने के लिए हमको एक दृष्टिकोण बनाना की ज़रूरत होती है और हमको स्वयं को ठीक करने का प्रयास करना शुरू करना पड़ता है। अपने दृष्टिकोण बदलने की ज़रूरत है और आप देखेंगे की आप अपने धर्म यानी जीवन में पवित्र अनुष्ठान करना प्रारंभ कर देते हैं जिससे आपकी चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है।    धर्म का धारण एक अभ्यास का पालन करने जैसा है। हमारे पास आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, इच्छा शक्ति और ऊर्जा के विभिन्न स्तरों का आभास होने से आप अपने आपको सकारात्मकता के साथ प्रस्तुत करने लगेंगे। यही धर्म का अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है। 

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