सचेतन, पंचतंत्र की कथा-60 : ज्ञान की शक्ति हमेंशा आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करती है
आज दो उद्धरणों को सोचते हैं जिनमें गहरी आध्यात्मिक और दार्शनिक सोच निहित है, जो ज्ञान और विचार-विमर्श के महत्व को दर्शाती है।
पहला, जो लोग ज्ञान और विद्या की गहराई में डूबे होते हैं, उन्हें ज्ञान के सुंदर विचारों और उच्चारणों में बड़ी गहरी खुशी और उत्तेजना महसूस होती है। ऐसे बुद्धिजीवी लोगों को स्त्री या पुरुष के संग के बिना भी संतोष और सुख की अनुभूति हो सकती है। उनके लिए, ज्ञान का स्रोत ही उनका सच्चा सुख है, और इसी में वे अपनी खुशियाँ ढूंढ लेते हैं। इस प्रकार, उन्हें अपने आनंद के लिए किसी बाहरी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती।
दूसरा उद्धरण, “जो सुभाषित रूपी वन का स्वयं संग्रह नहीं करता, उसे बातचीत रूपी यज्ञ में किसे दक्षिणा देनी चाहिए?” यह उद्धरण बताता है कि जिस व्यक्ति ने स्वयं ज्ञान का संग्रह नहीं किया है, उसे बातचीत में योगदान कैसे देना चाहिए? यह सवाल यह दिखाता है कि बौद्धिक और सामाजिक चर्चा में भाग लेने के लिए ज्ञान का होना कितना आवश्यक है। जैसे यज्ञ में दक्षिणा देना एक महत्वपूर्ण और आदरपूर्ण कार्य है, वैसे ही बातचीत में योगदान देने के लिए ज्ञान का संग्रह आवश्यक है। अगर व्यक्ति ने खुद ज्ञान नहीं अर्जित किया है, तो उसके पास दूसरों के साथ साझा करने के लिए क्या होगा? इसलिए, यह कहना है कि जो लोग ज्ञान को महत्व देते हैं और उसे संग्रह करते हैं, वे ही समाज में सार्थक और उपयोगी योगदान दे सकते हैं।
दोनों उद्धरण ज्ञान की शक्ति और आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करते हैं, और यह भी बताते हैं कि कैसे व्यक्तिगत विकास और सामाजिक योगदान दोनों ही ज्ञान के उचित अर्जन और उपयोग से प्राप्त हो सकते हैं।
ये सभी विचार दर्शाते हैं कि ज्ञान का संचय कैसे हमारे जीवन को प्रभावित करता है और हमारी बातचीत में गहराई लाता है। यह हमें यह भी सिखाता है कि कैसे ज्ञानी लोग अपने अनुभवों और सीख के माध्यम से दूसरों का मार्गदर्शन कर सकते हैं।
एक दिन जब चित्रांग गोष्ठी में नहीं आया, तब सभी लोग चिंतित हो गए। सबने सोचा, “हमारे दोस्त के साथ क्या हुआ होगा? क्या किसी शेर या शिकारी ने उसे मार डाला होगा? क्या वह जंगल की आग में जल गया होगा? या फिर क्या वह नई घास की लालच में किसी मुश्किल में फंस गया होगा?” फिर किसी ने कहा, “जब कोई अपने प्रियजन के घर के बगीचे में जाता है, तब भी उसके प्रियजन उसके अनिष्ट की चिंता करते हैं। और जब वह खतरों से भरे जंगल में जाता है, तो चिंता और भी ज्यादा होती है।”
बाद में मंथरक ने कौए से कहा, “हे लघुपतनक! मैं और हिरण्यक धीमी गति से चलते हैं, इसलिए हम उसे ढूंढने में असमर्थ हैं, तुम जंगल में जाओ और पता लगाओ कि वह जिंदा है कि नहीं?” लघुपतनक ने एक तालाब के किनारे चित्रांग को जाल में फंसा हुआ पाया। कौए ने देखा और पूछा, “भद्र, यह क्या?” चित्रांग ने दुखी होकर जवाब दिया, “प्रेमियों के मिलने से जो दुख हल्का होना चाहिए, वह बढ़ जाता है।” उसने लघुपतनक से कहा, “मित्र! मेरी मौत आ पहुंची है, इसलिए तेरे साथ मेरी आखिरी मुलाकात होना अच्छा ही है। जब कोई बहुत कमजोर हो जाता है या बर्बाद हो जाता है, तब मित्र के मिलने से दुख और बढ़ जाता है।” उसने आगे कहा, “मित्र के दर्शन से, चाहे जीवन हो या मौत, उस समय दोनों को राहत मिलती है।”
चित्रांग ने कहा, “मैंने जो भी कहा है या सुना है, उसे क्षमा कर देना। हिरण्यक और मंथरक से कहना कि जो भी कड़वी बातें मैंने कही हैं, उन्हें आज मुझे माफ कर देना।” जब प्राणियों का दुख हल्का हो जाता है या खत्म हो जाता है, तब भी अक्सर प्रेमियों के मिलने से उनका दुख बढ़ जाता है। जब चित्रांग के आंसू रुके, तो उसने लघुपतनक से कहा, “हे मित्र! अब तो मेरी मौत करीब आ पहुंची है, इसलिए तेरे साथ मेरी मुलाकात होना अच्छा हुआ। जब कोई बहुत कमजोर हो जाने पर या नष्ट हो जाने पर मित्र के मिलने से बड़ी तकलीफ होती है।
लघुपतनक ने चित्रांग से कहा, “भद्र! तुम्हारे पास हम जैसे मित्र हैं, तो तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। मैं अभी हिरण्यक को लेकर जल्दी से वापस आता हूं। सच्चे पुरुष कभी भी कष्ट में घबराते नहीं हैं।” फिर उसने चित्रांग को हिम्मत बंधाते हुए यह कहावत सुनाई, “जिसे संपत्ति में खुशी नहीं होती, विपत्ति में दुःख नहीं होता, लड़ाई में डर नहीं होता, उसे ही माँ जन्म देती है जो तीनों लोक के लिए आदर्श होता है।” इसके बाद वह हिरण्यक और मंथरक के पास गया और उन्हें चित्रांग के जाल में फंसने की बात बताई। हिरण्यक ने तुरंत चित्रांग की मदद करने का फैसला किया और एक कौए की पीठ पर चढ़कर जल्दी से चित्रांग के पास पहुंचा।
चित्रांग ने हिरण्यक को देखते ही कहा, “असली मित्र वो होते हैं जो मुश्किल समय में काम आते हैं। जिनके पास मित्र नहीं होते, वे मुश्किल से नहीं उबर पाते।” हिरण्यक ने पूछा, “भद्र! तुम तो नीति-शास्त्र को अच्छी तरह जानते हो, फिर तुम इस फंदे में कैसे फंस गए?” चित्रांग ने कहा, “यह बहस करने का समय नहीं है। जल्दी से मेरे पैर के बंधन काट डालो, इससे पहले कि शिकारी यहां आ जाए।” हिरण्यक ने हंसते हुए कहा, “मैं यहां आ गया हूं, फिर भी तुम शिकारी से क्यों डरते हो?” चित्रांग ने जवाब दिया, “तुम्हारे जैसा बुद्धिमान व्यक्ति भी ऐसी हालत में पहुंच सकता है, इसलिए मुझे नीति-शास्त्र में रुचि नहीं रही। कहते हैं कि ‘जब काल और दैव का चक्कर पड़ता है, तो बड़े बड़े व्यक्तियों की भी हालत खराब हो जाती है।’
भगवान ने जो लिखा है, उसे कोई नहीं मिटा सकता।
जब हिरण्यक और लघुपतनक बातचीत कर रहे थे, तब दुःखी मंथरक भी वहाँ आ पहुँचा। हिरण्यक ने लघुपतनक से कहा, “अरे! यह तो अच्छा नहीं हुआ।” फिर हिरण्यक ने पूछा, “क्या शिकारी आ रहा है?” लघुपतनक ने जवाब दिया, “शिकारी की बात तो छोड़ो, मंथरक आ रहा है। उसने गलती की है। अगर शिकारी आ जाता है तो मंथरक की वजह से हम सबको नुकसान होगा। शिकारी आने पर मैं आकाश में उड़ जाऊंगा, तुम बिल में छिप जाओगे और चित्रांग भी कहीं और भाग जाएगा, पर इस जलचर का क्या होगा? इसकी चिंता मुझे सता रही है।” तभी मंथरक वहाँ पहुँच गया। हिरण्यक ने कहा, “तुम्हें यहाँ आकर ठीक नहीं किया। इसलिए जब तक शिकारी न आए, तुम वापस लौट जाओ।” मंथरक ने कहा, “भद्र! मैं क्या करूँ, मैं वहाँ रहकर अपने मित्र के दुःख को सह नहीं पा रहा था, इसलिए यहाँ आया हूँ। सच में यह सही कहा गया है कि अगर मित्रों का साथ न होता, तो प्रियजनों के वियोग और धन का नुकसान कौन सह सकता है? मर जाना बेहतर है, पर ऐसे लोगों से बिछड़ना उचित नहीं। जन्मान्तर में तो प्राण मिल जाएंगे, पर आप जैसे मित्र नहीं मिलेंगे।”
दोस्तों, आज के इस सत्र में हमने देखा कि कैसे विपत्ति के समय में मित्रता और बुद्धिमत्ता का सही प्रयोग हमें सुरक्षित रास्ता दिखा सकता है। उम्मीद है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी और आपने इससे कुछ महत्वपूर्ण सीखा होगा। अगले एपिसोड में फिर मिलेंगे एक नई कहानी के साथ। तब तक के लिए, खुद को सुरक्षित रखें और सकारात्मक बने रहें। नमस्कार!