सचेतन 112 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- तत्पुरुष रूप में कर्म और करण एक स्वतंत्र और आध्यात्मिक जीवन का बोध दिलाता है।
भगवान शिव का तत्पुरुष स्वरूप हमारे स्वतंत्र स्वरूप का बोध है। जहां हम बंधन मुक्त हो कर जीते हैं। बंधन मुक्ति का रास्ता हमारे कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, संबंध और अधिकरण से हो कर जाता है। हम सभी को स्वतंत्रता चाहिए लेकिन कैसी?
एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे, तभी बुद्ध ने एक नवयुवती को जो कीचड़ में गिरी हुई थी, उसे कीचड़ से उठाकर बाहर बिठा दिया। घटना वहीं ख़त्म हो गई और बुद्ध अपने रास्ते चल पड़े।
एक सप्ताह बाद बुद्ध का एक शिष्य भगवान बुद्ध के पास आया और कहने लगा कि प्रभु! मैं पिछले एक सप्ताह से इस विषय पर सोच रहा हूं कि आपने संन्यासी होकर भी उस नवयुवती को क्यों उठाया?
भगवान बुद्ध बोले – मैंने तो उस नवयुवती को कुछ क्षणों के लिए उठाया था, परंतु तुम तो उस नवयुवती को एक सप्ताह से मन में उठाकर घूम रहे हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि भोगी वह नहीं जो मात्र विषयों को भोगता हो, परंतु उससे अधिक भोग विलास वह व्यक्ति करता है जो विषय भोगों में मानसिक रूप से विचरण करता है। इस समाज में गृहस्थ शायद इतना भोगविलासी न हो अगर उसका मन विषयों में न रमता हो और शायद तथाकथित साधु-संत अधिक भोगविलासी हों यदि उनका मन भोगविलास में रमता है।
शांति से सोचिएगा तो पाएंगे कि जो व्यक्ति हमेशा भोगविलास की निंदा करता है तथा भोगविलासियों को निम्न समझता है वो शायद अधिक भोगविलासी हो। परंतु वह व्यक्ति जो भगवान को नहीं मानता, भगवान का विषय आते ही वाद-विवाद में उतर पड़ता है वह शायद अधिक धार्मिक हो, क्योंकि उसका मन हमेशा भगवान में लगा है।
भगवान शिव का तत्पुरुष स्वरूप कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, संबंध और
अधिकरण से हमसभी को स्वतंत्रता दिलाता है।
कर्म का विभाजन हमारे आध्यात्मिक जीवन से होता है। हम क्या संचय करना चाहते हैं और उस कर्म के फल का ‘प्रारब्ध’ कैसा होगा जिससे हमारे वर्तमान कर्म ‘क्रियमाण’ का निर्धारण हो सकेगा।
हम सभी यही कहते हैं की उस व्यक्ति का परिचय या स्वभाव मनुष्य, देव, राजा, असुर, जानवर आदि प्रकर का है। अगर हम इस पहचान के साथ जीते हैं तो वह पहचान हमारे कर्मो से है। व्यक्ति नरक, असुर, प्रेत, पशुयोनी, मनुष्ययोनी, देवयोनि, ब्रहमयोनी अथवा मुक्ति पाने की बात करता है। यह सारा जीवन यानी योनि हमारे नाना प्रकार के कर्म के कारण या यूँ कहें हम अपने कर्मों के ही कारण प्राणी भिन्न भिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते है ।
शिव जी का तत्पुरुष अवतार में करण का भाव यह बताता है की हमको पूर्व में किए गये कर्म का बोध होता है और उसमें ही करण या कारण के कारक छिपे होते हैं। जब आपको स्वयं बोध होने लगे की वर्तमान में हमारा परिचय या स्वभाव मनुष्य, देव, राजा, असुर, जानवर आदि प्रकर से हो रहा है तो आप उसका कारण या करण ज़रूर खोजिए।