सचेतन 164 : श्री शिव पुराण- उमा संहिता- तप सबसे शक्तिशाली है

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भगवान प्रजापति ने तप से ही इस समस्‍त संसार की सृष्टि की है तथा ऋषियों ने तप से ही वेदों का ज्ञान प्राप्त किया है।

तपस्या हमारे जीवन के शासन की महिमा, गरिमा एवं प्रभाव को बढ़ाने वाला अदभुत कार्य है। तप वो ही करता है जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर सकता है। तप की सार्थकता के लिए मन की चंचलता को छोड़कर स्थिरता धारण करना पड़ती है। तपस्या से मन-वचन काया की पवित्रता, निर्मलता में अभिवृद्धि होती है।

संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है जो तपस्या के बिना सुलभ होता हो। तप से ही सारा सुख मिलता है, इस बात को वेदवेत्ता पुरुष जानते हैं।

ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, सुन्दर रूप, सौभाग्य तथा शाश्वत सुख तप से ही प्राप्त होते हैं। तपस्या से ही ब्रह्मा बिना परिश्रम के ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। तपस्या से ही विष्णु इसका पालन करते हैं। तपस्या के बल से ही रुद्रदेव संहार करते हैं तथा तप के प्रभाव से ही शेष अशेष भूमण्डल को धारण करते हैं।

चाणक्य नीति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि तप सबसे शक्तिशाली हैं जो दूर है, दुराध्य है, वह सब तप से  साध्य है। यानि तपस्या या कठिन परिश्रम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

आचार्य कहते हैं कि लोभी व्यक्ति को दूसरे के अवगुणों या गुणों से कोई मतलब नहीं होता। वह अपने स्वार्थ को देखता है। चुगलखोर व्यक्ति पाप से नहीं डरता वह चुगली कर कोई भी पाप कर सकता है। सच्चे व्यक्ति को तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती। सच्चाई सबसे बड़ी तपस्या है। मन शुद्ध होने पर व्यक्ति को तीर्थों में जाने या न जाने से कोई मतलब नहीं रहता। यदि कोई समाज में प्रसिद्ध हो चुका हो तो उसे सजने—सँवरने की आवश्यकता नहीं होती। विद्वान को धन की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि विद्या सबसे बड़ा धन है। बदनामी अपने आप में मृत्यु है।

ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं की जिस मूढ़ने तपस्‍या नहीं की है, उसे अपने शुभ कर्मों का फल नहीं मिलता है। भगवान प्रजापति ने तप से ही इस समस्‍त संसार की सृष्टि की है तथा ऋषियों ने तप से ही वेदों का ज्ञान प्राप्त किया है। जो–जो फल, मूल और अन्‍न हैं, उनको विधाता ने तपसे ही उत्पन्न किया है। 

तपस्‍या से सिद्ध हुए एकग्रचित महात्‍मा पुरुष तीनों लोकों को प्रत्‍यक्ष देखते हैं। औषध, आरोग्‍य आदि की प्राप्ति तथा नाना प्रकार की क्रियाएं तपस्‍या से ही सिद्ध होती है; क्‍योंकि प्रत्‍येक साधन की जड़ तपस्‍या ही है। संसार में जो कुछ भी दुर्लभ वस्‍तु हो, वह सब तपस्‍या से सुलभ हो सकती है। 

ऋषियों ने तपस्‍या से ही अणिमा आदि अष्‍टविध ऐश्‍वर्य को प्राप्‍त किया है, इसमें संशय नहीं है। आप ने जीवन में जो भी पाप किया है चाहे चोरी की हो या शराबी बन गये हों, या फिर कोई गर्भहत्‍यारा और गुरुपत्‍नीगामी मनुष्‍य ही क्यों ना हो वो भी  अच्‍छी तरह की तपस्‍या करके पाप से छुटकारा पाता है। 

तपस्‍या के अनेक रूप है और भिन्‍न–भिन्‍न साधनों एवं उपायों द्वारा मनुष्‍य उसमें प्रवृत्त होता है;  प्रवृत्त मार्ग यानी जीवन-यापन का वह प्रकार जिसमें मनुष्य सांसारिक कार्यों और बंधनों में पड़ा रहकर दिन बिताता है। परंतु जो निवृतिमार्ग से चल रहा है, उसके लिये उपवास से बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है।

अहिंसा, सत्‍यभाषण, दान और इन्द्रिय–संयम- इन सबसे बढ़कर तप है और उपवास से बड़ी कोई तपस्‍या नहीं है। दान से बढ़कर कोई दुष्‍कर धर्म नहीं है, माता की सेवा से बड़ा कोई दूसरा आश्रय नहीं है, तीनों वेदों के विद्वानों से श्रेष्‍ठ कोई विद्वान् नहीं है और संन्यास सबसे बड़ा तप है। 

इस संसार में धार्मिक पुरुष स्‍वर्ग के साधनभूत धर्म की रक्षा के लिये इन्द्रियों को सुरक्षित (संयमशील बनाये) रखते हैं। परंतु धर्म और अर्थ दोनों की सिद्धि के लिये तप ही श्रेष्‍ठ साधन है और उपवास से बढ़कर कोई तपस्‍या नहीं है। ऋषि, पितर, देवता, मनुष्‍य, पशु–पक्षी तथा दूसरे जो चराचर प्राणी हैं, वे सब तपस्‍या में ही तत्‍पर रहते हैं। तपस्‍या से ही उन्‍हें सिद्धि प्राप्‍त होती है। इसी प्रकार देवताओं ने भी तपस्‍या से ही महत्‍वपूर्ण पद प्राप्‍त किया है। ये जो भिन्‍न–भिन्‍न अभीष्‍ट फल कहे गये हैं, वे सब सदा तपस्‍या से ही सुलभ होते हैं। तपस्‍या से निश्‍चय ही देवत्‍व भी प्राप्‍त किया जा सकता है।

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