VIDEO
हनुमान जी को देखकर सीताजी का तर्क-वितर्क चलता रहा और फिर सीता जी ने बताया की उन्हें रावण बलपूर्वक हर कर लाया था। हनुमान जी को भी विश्वास हो गया की वे सीताजी ही हैं। हनुमान जी ने कहा की आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। मैं आपके विषय में जानना चाहता हूँ। दुःख के कारण आप में जैसी दीनता आ गयी है, जैसा आपका अलौकिक रूप है तथा जैसा तपस्विनी का-सा वेष है, इन सबके द्वारा निश्चय ही आप श्रीरामचन्द्रजी की महारानी जान पड़ती हैं। हनुमान जी की बात सुनकर विदेह नन्दिनी सीता श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा से बहुत प्रसन्न थीं; अतः वृक्ष का सहारा लिये खड़े हुए उन पवनकुमार से बोलीं- कपिवर! जो भूमण्डल के श्रेष्ठ राजाओं में प्रधान थे, जिनकी सर्वत्र प्रसिद्धि थी तथा जो शत्रुओं की सेना का संहार करने में समर्थ थे, उन महाराज दशरथ की मैं पुत्रवधू हूँ, विदेहराज महात्मा जनक की पुत्री हूँ और परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम की धर्मपत्नी हूँ मेरा नाम सीता है। अयोध्या में श्रीरघुनाथजी के अन्तःपुर में बारह वर्षों तक मैं सब प्रकार के मानवीय भोग भोगती रही और मेरी सारी अभिलाषाएँ सदैव पूर्ण होती रहीं। तदनन्तर तेरहवें वर्ष में महाराज दशरथ ने राजगुरु वसिष्ठजी के साथ इक्ष्वाकुकुलभूषण भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी आरम्भ की।जब वे श्रीरघुनाथजी के अभिषेक के लिये आवश्यक सामग्री का संग्रह कर रहे थे, उस समय उनकी कैकेयी नामवाली भार्या ने पति से इस प्रकार कहा- अब न तो मैं जलपान करूँगी और न प्रतिदिन का भोजन ही ग्रहण करूँगी। यदि श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ तो यही मेरे जीवन का अन्त होगा। नृपश्रेष्ठ! आपने प्रसन्नता पूर्वक मुझे जो वचन दिया है, उसे यदि असत्य नहीं करना है तो श्रीराम वन को चले जायँ। महाराज दशरथ बड़े सत्यवादी थे। उन्होंने कैकेयी देवी को दो वर देने के लिये कहा था। उस वरदान का स्मरण करके कैकेयी के क्रूर एवं अप्रिय वचन को सुनकर वे मूर्च्छित हो गये। तदनन्तर सत्य धर्म में स्थित हुए बूढ़े महाराज ने अपने यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र श्रीरघुनाथजी से भरत के लिये राज्य माँगा। श्रीमान् राम को पिताके वचन राज्याभिषेक से भी बढ़कर प्रिय थे। इसलिये उन्होंने पहले उन वचनों को मन से ग्रहण किया, फिर वाणी से भी स्वीकार कर लिया। सत्य-पराक्रमी भगवान् श्रीराम केवल देते हैं, लेते नहीं। वे सदा सत्य बोलते हैं, अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये भी कभी झूठ नहीं बोल सकते। उन महायशस्वी श्रीरघुनाथजी ने बहुमूल्य उत्तरीय वस्त्र उतार दिये और मन से राज्य का त्याग करके मुझे अपनी माता के हवाले कर दिया। किंतु मैं तुरंत ही उनके आगे-आगे वन की ओर चल दी; क्योंकि उनके बिना मुझे स्वर्ग में रहना अच्छा नहीं लगता।अपने सुहृदों को आनन्द देने वाले सुमित्राकुमार महाभाग लक्ष्मण भी अपने बड़े भाई का अनुसरण करने के लिये उनसे भी पहले कुश तथा चीर-वस्त्र धारण करके तैयार हो गये। इस प्रकार हम तीनों ने अपने स्वामी महाराज दशरथ की आज्ञा को अधिक आदर देकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए उस सघन वन में प्रवेश किया, जिसे पहले कभी नहीं देखा था। वहाँ दण्डकारण्य में रहते समय उन अमिततेजस्वी भगवान् श्रीराम की भार्या मुझ सीता को दुरात्मा राक्षस रावण यहाँ हर लाया है। उसने अनुग्रहपूर्वक मेरे जीवन-धारण के लिये दो मास की अवधि निश्चित कर दी है। उन दो महीनों के बाद मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा।