सचेतन 197: परमात्मा की खोज के मार्ग

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ज्ञान का अवतरण तब होगा जब आप अपने अज्ञान को पूरी तरह स्वीकार कर लेंगे

जब कभी भी आपसे पूछा जाता है की आपके भीतर कौन है? तो आप कह देते हैं  -आत्मा। यह उत्तर आपकी स्मृति ने सीख रखा है हम सचेतन स्वयं की खोज पर चर्चा कर रहे हैं तो उत्तर जो स्मृति से आ रहा है वह, झूठा होगा, सीखा हुआ होगा। सब सीखी हुई बातें ज्ञान नहीं बनती हैं। 

जीवन को विराट रूप में खोजें और हो सकता है वह रूप आपके भीतर है। जो भीतर है उसे बाहर से नहीं सीखा जा सकता; उसे जाना जा सकता है; उसे उघाड़ा जा सकता है; उसे डिस्कवर किया जा सकता है; उसे पहचाना जा सकता है लेकिन सीखा नहीं जा सकता। 

आप कहेंगे की आपका जवाब आपके भीतर आत्मा है ईश्वर है यह आपका कभी धार्मिक जवाब नहीं हो पाएगा और वह आप मनुष्य रूप में कभी सत्य को नही जान पाएंगे और कभी आनंद को भी उपलब्ध नहीं हो पाएंगे। 

आपको अपने प्राणों की सारी गहराई में पूछना होगा की मैं कौन हूं? 

जो अज्ञात है, अननोन है, जो अभी अपरिचित है उसे स्मृति नहीं जानती। स्मृति तो जो सीख लिया गया है उसका संग्रह है, स्मृति के उत्तर को इनकार करें। स्मृति कहे विष्णु हो, तो उसे जाने दें उसे पकड़ें न। स्मृति कहे कि आत्मा हो, तो उसे जाने दें उसे पकड़ें न। स्मृति कहे कि परमात्मा हो, स्मृति कहे कुछ भी नहीं केवल पदार्थ हो। 

अगर आप नास्तिक के घर में पले तो स्मृति कहेगी की कुछ भी नहीं केवल शरीर हो। अगर धार्मिक घर में पले हैं तो स्मृति कहेगी आत्मा हो, अजर-अमर आत्मा हो। ये दोनों शिक्षाएं हैं इनको छोड़ दें। नास्तिक को, आस्तिक को जाने दें। ग्रंथों से आए हुए उत्तर को जाने दें। फिर क्या होगा जब कोई उत्तर न आएगा तो क्या होगा? 

जब किसी उत्तर की स्वीकृति न होगी तो क्या होगा? भीतर एक सन्नाटा हो जाएगा एक मौन खड़ा हो जाएगा, एक सायलेंस पैदा हो जाएगी। और उसी मौन से, उसी सन्नाटे से, उसी शून्य से उस चीज का अनुभव आना शुरू होता है जो स्वयं का होना है। 

पूछें, मैं कौन हूं? प्रश्न को ही प्राणों में छाने दें, और प्रश्न को ही उतरने दें गहरा, और कोई उत्तर न पकड़े क्योंकि सभी उत्तर सीखे हुए होंगे। 

कोई उत्तर हिंदू का, मुसलमान का, जैन का न पकड़ें, सब उत्तर सीखे हुए होंगे। प्रश्न रह जाए मैं कौन हूँ तीर की भांति प्राणों को छेदता हुआ। सिर्फ प्रश्न रह जाए मैं कौन हूँ और कोई उत्तर न हो तो आप हैरान होंगेे उसी अंतराल में, उसी खाली जगह में, उसी मौन में, वह किरण उतरनी शुरू होगी स्वयं की, स्वयं को जानने का पहला साक्षात, स्वयं के अनुभव का पहला बोध, पहला प्रकाश उतरना शुरू होगा।

तो आज की सुबह निवेदन करना चाहता हूं पूछें अपने से मैं कौन हूं और किसी उत्तर को स्वीकार न करें जो बाहर से आया हुआ हो। किसी उत्तर को स्वीकार न करें। चाहे वह किसी भगवान के अवतार का उत्तर हो, चाहे किसी तीर्थंकर का, चाहे किसी ईश्वर पुत्र का, चाहे किसी पैगंबर का, चाहे किसी बुद्ध पुरुष का, किसी का भी उत्तर हो उसे स्वीकार न करें। 

परमात्मा की खोज के मार्ग पर, सत्य की खोज के मार्ग पर जो भी बीच में आ जाए उसे विदा कर दें। उससे कहो कि हट जाओ, चाहे वे तीर्थंकर हों, चाहे वह ईश्वर पुत्र हो, चाहे भगवान स्वयं हों। उनसे कहें कि रास्ता छोड़ दो। मैं जानना चाहता हूँ तो मुझे किसी के भी उत्तर को स्वीकार करने की कोई गुंजाइश नहीं है। 

मैं देखना चाहता हूँ तो मैं किसी की उधार आंख से नहीं देख सकता और मेरे प्राण को स्पंदित होना चाहते है तो मेरा हृदय धड़केगा तो ही यह हो सकता है किसी और हृदय की धड़कन से यह नहीं हो सकता। यह जो हमारा सीखा हुआ ज्ञान है, यह हमारे ज्ञान के जन्म में बाधा है, सीखा हुआ ज्ञान बाधा है। वही रोक रहा है, वही दीवाल बन कर खड़ा है। अज्ञान तो अत्यंत निर्दोष स्थिति में खड़ा कर देगा। 

बहुत इनोसेंस में खड़ा कर देगा। बहुत सरलता में, बहुत निर-अहंकार स्थिति में खड़ा कर देगा। और जो इस बात को पूरा न कर सके वह आगे खोज नहीं कर सकेगा। जो अपने अज्ञान को स्वीकार न कर सके वह आगे खोज नहीं कर सकेगा। 

सुकरात के जमाने में एक व्यक्ति को देवी आती थी, पता नहीं, और उस व्यक्ति से किसी ने पूछा जब वह आविष्ट था, देवी से पूछा कि यूनान में सबसे बड़ा ज्ञानी कौन है। उसने कहा सुकरात।

वह सुकरात के पास गया और सुकरात से पूछा कि यह घोषणा हुई है, दैवीय घोषणा है कि तुम यूनान के सबसे बड़े ज्ञानी हो। तो उसने कहा कि जाओ और देवी को कहना कि कुछ भूल हो गई है क्योंकि मैं तो जैसे-जैसे खोजता हूँ, पाता हूँ कि मुझसे बड़ा और कोई अज्ञानी नहीं है। जाओ, कहना कोई भूल हो गई है क्योंकि मैं तो जैसे-जैसे खोजता हूँ पाता हूँ मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं है। 

जब मैं बच्चा था तो मुझमें थोड़ा ज्ञान था। कई बातें मुझे लगती थीं कि मैं जानता हूँ। जब मैं जवान हुआ तो मेरा ज्ञान और कम हो गया। मुझे कई बातें पता चलीं कि वह मेरा बचपना था मैं जानता नहीं था और अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूँ तो मैं पाता हूँ कि जो भी मैं जानता था वह कुछ भी नहीं जानता था। 

अब तो एक अज्ञान मुझे घेर रहा है और मुझे लगता है कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। वह व्यक्ति वापस गया और उसने जाकर कहा कि सुकरात तो कहता है कि मैं परम अज्ञानी हूं और मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। 

वह व्यक्ति जो आविष्ट था वह हंसा और उसने कहा, जाओ-जाओ और उससे कहो कि इसीलिए उसे कहा वह महाज्ञानी है। क्योंकि ज्ञान के अवतरण की भूमिका है अपने अज्ञान को पूरी तरह जान लेना, स्वीकार कर लेना, पहचान लेना। जैसे ही हम अज्ञान को स्वीकार करते हैं, जैसे ही हम जानते हैं, कि नहीं जानते हैं वैसे ही एक परिवर्तन, एक क्रांति घटित हो जाती है। वैसे ही एक पर्दा गिर जाता है, अहंकार का, जानने का, और एक मौन, और एक शांति अवतरित हो जाती है।

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