सचेतन 133 : श्री शिव पुराण- पशुपति प्राणियों के शिव
शिव और शून्यता
आदिम रूपों या शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने का अर्थ है की जो सर्वप्रथम, आदि में उत्पन्न, पहला या यूँ कहें की जो अविकसित है या सीधे-सादे ढंग का बहुत पुराना चीज है।
जब हम ‘शिव’ कहते हैं तो हमारा इशारा दो बुनियादी चीजों की तरफ होता है। ‘शिव’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘जो नहीं है’।
तो शिव शब्द “वो जो नहीं है” और आदियोगी दोनों की ही ओर संकेत करता है, क्योंकि बहुत से तरीकों से ये दोनों पर्यायवाची हैं। ये जीव, जो एक योगी हैं और वो शून्यता, जो सृष्टि का मूल है, दोनों एक ही है। क्योंकि किसी को योगी कहने का मतलब है कि उसने ये अनुभव कर लिया है कि सृष्टि वो खुद ही है।
अगर आपको इस सृष्टि को अपने भीतर एक क्षण के लिए भी बसाना है, तो आपको वो शून्यता बनना होगा। सिर्फ शून्यता ही सब कुछ अपने भीतर समा सकती है। जो शून्य नहीं, वो सब कुछ अपने भीतर नहीं समा सकता। एक बर्तन में समुद्र नहीं समा सकता। ये ग्रह समुद्र को समा सकता है, पर सौर्य मंडल को नहीं समा सकता। सौर्य मंडल ग्रहों और सूर्य को समा सकता है, पर बाकी की आकाश गंगा को नहीं समा सकता। अगर आप इस तरह कदम दर कदम आगे बढ़ें, तो आखिरकार आप देखेंगे, कि सिर्फ शून्यता ही हर चीज़ को अपने भीतर समा सकती है। योग शब्द का अर्थ है मिलन। योगी वो है जिसने इस मिलन का अनुभव कर लिया है। इसका मतलब है, कम से कम एक क्षण के लिए, वो पूर्ण शून्यता बन चुका है।
शिव शब्द के दो अर्थ – योगी शिव और शून्यता – एक तरह के पर्यायवाची हैं, पर फिर भी वे दो अलग-अलग पहलू हैं। क्योंकि भारतीय संस्कृति द्वंद्व से भरी है, इसलिए हम एक पहलू से दूसरे पहलू पर आते-जाते रहते हें। एक पल हम परम तत्व शिव की बात करते हैं, तो अगले ही पल हम उन योगी शिव की बात करने लगते हैं, जिन्होंने हमें योग का उपहार दिया है।
आज के आधुनिक विज्ञान ने साबित किया है कि इस सृष्टि में सब कुछ शून्यता से आता है और वापस शून्य में ही चला जाता है। इस अस्तित्व का आधार और संपूर्ण ब्रम्हांड का मौलिक गुण ही एक विराट शून्यता है। उसमें मौजूद आकाशगंगाएं केवल छोटी-मोटी गतिविधियां हैं, जो किसी फुहार की तरह हैं। उसके अलावा सब एक खालीपन है, जिसे शिव के नाम से जाना जाता है। शिव ही वो गर्भ हैं जिसमें से सब कुछ जन्म लेता है, और वे ही वो गुमनामी हैं, जिनमें सब कुछ फिर से समा जाता है। सब कुछ शिव से आता है, और फिर से शिव में चला जाता है।
वेद भगवान शिव की अष्टमूर्तियों (रूपों) की बात करते हैं । सर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव, ईशान शिव की आठ मूर्तियाँ हैं। पुराण इन आठ रूपों के लिए अधिष्ठानों की व्याख्या करते हैं, जो पृथ्वी के लिए सर्व, जल के लिए भव, अग्नि के लिए रुद्र, वायु के लिए उग्र, अंतरिक्ष के लिए भीम, यजमान के लिए पशुपति, चंद्रमा के लिए महादेव और सूर्य के लिए ईशान हैं। शिव को पसुपति भी कहा जाता है अर्थात भगवान शिव जीव पर अपनी अपार कृपा के साथ अर्थात पासु, पासा या डोरी को काटते हैं और उसे भक्ति के साथ जुड़ने के लिए मुक्त करते हैं। इस प्रकार उनका नाम पशुपति अधिक सार्थक है।