सचेतन 2.36: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड -राक्षसराज रावण के महल में सीताजी की खोज रावण के भवन एवं पुष्पक विमान का वर्णन
रावण के भवन एवं पुष्पक विमान का वर्णन
तत्पश्चात् बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान् उन सब भवनों को लाँघकर पुनः राक्षसराज रावण के महल पर आ गये।
वहाँ विचरते हुए उन वानरशिरोमणि कपिश्रेष्ठ ने रावण के निकट सोने वाली (उसके पलंग की रक्षा करने वाली) राक्षसियों को देखा, जिनकी आँखें बड़ी विकराल थीं।
साथ ही, उन्होंने उस राक्षसराज के भवन में राक्षसियों के बहुत-से समुदाय देखे, जिनके हाथों में शूल, मुद्गर, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे।
उनके सिवा, वहाँ बहुत-से विशालकाय राक्षस भी दिखायी दिये, जो नाना प्रकार के हथियारों से लैस थे। इतना ही नहीं, वहाँ लाल और सफेद रंग के बहुत-से अत्यन्त वेगशाली घोड़े भी बँधे हुए थे।
साथ ही अच्छी जाति के रूपवान् हाथी भी थे, जो शत्रु-सेना के हाथियों को मार भगाने वाले थे। वे सबके-सब गजशिक्षा में सुशिक्षित, युद्ध में ऐरावत के समान पराक्रमी तथा शत्रुसेनाओं का संहार करने में समर्थ थे। वे बरसते हुए मेघों और झरने बहाते हुए पर्वतों के समान मद की धारा बहा रहे थे। उनकी गर्जना मेघ-गर्जना के समान जान पड़ती थी। वे समराङ्गण में शत्रुओं के लिये दुर्जय थे। हनुमान जी ने रावण के भवन में उन सबको देखा।
राक्षसराज रावण के उस महल में उन्होंने सहस्रों ऐसी सेनाएँ देखीं, जो जाम्बूनद के आभूषणों से विभूषित थीं। उनके सारे अंग सोने के गहनों से ढके हुए थे तथा वे प्रातःकाल के सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थीं।
पवनपुत्र हनुमान् जी ने राक्षसराज रावण के उस भवन में अनेक प्रकार की पालकियाँ, विचित्र लतागृह, चित्रशालाएँ, क्रीडाभवन, काष्ठमय क्रीडापर्वत, रमणीय विलासगृह और दिन में उपयोग में आने वाले विलासभवन भी देखे।
उन्होंने वह महल मन्दराचल के समान ऊँचा, क्रीडा-मयूरों के रहने के स्थानों से युक्त, ध्वजाओं से व्याप्त, अनन्त रत्नों का भण्डार और सब ओर से निधियों से भरा हुआ देखा। उसमें धीर पुरुषों ने निधिरक्षा के उपयुक्त कर्माङ्गों का अनुष्ठान किया था तथा वह साक्षात् भूतनाथ (महेश्वर या कुबेर)-के भवन के समान जान पड़ता था।
रत्नों की किरणों तथा रावण के तेज के कारण वह घर किरणों से युक्त सूर्य के समान जगमगा रहा था।
वानरयूथपति हनुमान् ने वहाँ के पलंग, चौकी और पात्र सभी अत्यन्त उज्ज्वल तथा जाम्बूनद सुवर्ण के बने हुए ही देखे।
उसमें मधु और आसव के गिरने से वहाँ की भूमि गीली हो रही थी। मणिमय पात्रों से भरा हुआ वह सुविस्तृत महल कुबेर-भवन के समान मनोरम जान पड़ता था। नूपुरों की झनकार, करधनियों की खनखनाहट, मृदङ्गों और तालियों की मधुर ध्वनि तथा अन्य गम्भीर घोष करने वाले वाद्यों से वह भवन मुखरित हो रहा था।
उसमें सैकड़ों अट्टालिकाएँ थीं, सैकड़ों रमणीरत्नों से वह व्याप्त था। उसकी ड्योढ़ियाँ बहुत बड़ीबड़ी थीं। ऐसे विशाल भवन में हनुमान जी ने प्रवेश किया
रावण के भवन एवं पुष्पक विमान का वर्णन
बलवान् वीर हनुमान् जी ने नीलम से जड़ी हुई सोने की खिड़कियों से सुशोभित तथा पक्षिसमूहों से युक्त भवनों का समुदाय देखा, जो वर्षाकाल में बिजली से युक्त महती मेघमाला के समान मनोहर जान पड़ता था।
उसमें नाना प्रकार की बैठकें, शङ्ख, आयुध और धनुषों की मुख्य-मुख्य शालाएँ तथा पर्वतों के समान ऊँचे महलों के ऊपर मनोहर एवं विशाल चन्द्रशालाएँ (अट्टालिकाएँ) देखीं।
कपिवर हनुमान् ने वहाँ नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित ऐसे-ऐसे घर देखे, जिनकी देवता और असुर भी प्रशंसा करते थे। वे गृह सम्पूर्ण दोषों से रहित थे तथा रावण ने उन्हें अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया था।
वे भवन बड़े प्रयत्न से बनाये गये थे और ऐसे अद्भुत लगते थे, मानो साक्षात् मयदानव ने ही उनका निर्माण किया हो। हनुमान जी ने उन्हें देखा, लंकापति रावण के वे घर इस भूतल पर सभी गुणों में सबसे बढ़चढ़कर थे।
फिर उन्होंने राक्षसराज रावण का उसकी शक्ति के अनुरूप अत्यन्त उत्तम और अनुपम भवन (पुष्पक विमान) देखा, जो मेघ के समान ऊँचा, सुवर्ण के समान सुन्दर कान्तिवाला तथा मनोहर था।
वह इस भूतल पर बिखरे हुए स्वर्ण के समान जान पड़ता था। अपनी कान्ति से प्रज्वलित-सा हो रहा था। अनेकानेक रत्नों से व्याप्त, भाँति-भाँति के वृक्षों के फूलों से आच्छादित तथा पुष्पों के पराग से भरे हुए पर्वत-शिखर के समान शोभा पाता था।
वह विमानरूप भवन विद्युन्मालाओं से पूजित मेघ के समान रमणी-रत्नों से देदीप्यमान हो रहा थाऔर श्रेष्ठ हंसों द्वारा आकाश में ढोये जाते हुए विमान की भाँति जान पड़ता था। उस दिव्य विमान को बहुत सुन्दर ढंग से बनाया गया था। वह अद्भुत शोभा से सम्पन्न दिखायी देता था।
जैसे अनेक धातुओं के कारण पर्वतशिखर, ग्रहों और चन्द्रमा के कारण आकाश तथा अनेक वर्णों से युक्त होने के कारण मनोहर मेघ विचित्र शोभा धारण करते हैं, उसी तरह नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित होने के कारण वह विमान भी विचित्र शोभा से सम्पन्न दिखायी देता था।
उस विमान की आधारभूमि (आरोहियों के खड़े होने का स्थान) सोने और मणियों के द्वारा निर्मित कृत्रिम पर्वत-मालाओं से पूर्ण बनायी गयी थी। वे पर्वत वृक्षों की विस्तृत पंक्तियों से हरे-भरे रचे गये थे। वे वृक्ष फूलों के बाहुल्य से व्याप्त बनाये गये थे तथा वे पुष्प भी केसर एवं पंखुड़ियों से पूर्ण निर्मित हुए थे*।
* जहाँ पूर्वकथित वस्तुओं के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तओं का विशेषण-भाव से स्थापन किया जाय, वहाँ ‘एकावली’ अलंकार माना गया है। इस लक्षण के अनुसार इस श्लोक में एकावली अलंकार है। यहाँ ‘मही’ का विशेषण पर्वत, पर्वत का वृक्ष और वृक्ष का विशेषण पुष्प आदि समझना चाहिये। गोविन्दराज ने यहाँ ‘अधिक’ नामक अलंकार माना है, परंतु जहाँ आधार से आधेय की विशेषता बतायी गयी हो वही इसका विषय है; यहाँ ऐसी बात नहीं है।
उस विमान में श्वेतभवन बने हुए थे। सुन्दर फूलों से सुशोभित पोखरे बनाये गये थे। केसरयुक्त कमल, विचित्र वन और अद्भुत सरोवरों का भी निर्माण किया गया था।
महाकपि हनुमान् ने जिस सुन्दर विमान को वहाँ देखा, उसका नाम पुष्पक था। वह रत्नों की प्रभा से प्रकाशमान था और इधर-उधर भ्रमण करता था। देवताओं के गृहाकार उत्तम विमानों में सबसे अधिक आदर उस महाविमान पुष्पक का ही होता था।
उसमें नीलम, चाँदी और मँगों के आकाशचारी पक्षी बनाये गये थे। नाना प्रकार के रत्नों से विचित्र वर्ण के सो का निर्माण किया गया था और अच्छी जाति के घोड़ों के समान ही सुन्दर अंगवाले अश्व भी बनाये गये थे।
उस विमान पर सुन्दर मुख और मनोहर पंख वाले बहुत-से ऐसे विहङ्गम निर्मित हुए थे, जो साक्षात् कामदेव के सहायक जान पड़ते थे। उनकी पाँखें मूंगे और सुवर्ण के बने हुए फूलों से युक्त थीं तथा उन्होंने लीलापूर्वक अपने बाँके पंखों को समेट रखा था।
उस विमान के कमलमण्डित सरोवर में ऐसे हाथी बनाये गये थे, जो लक्ष्मी के अभिषेक-कार्य में नियुक्त थे। उनकी सैंड बड़ी सुन्दर थी। उनके अंगों में कमलों के केसर लगे हुए थे तथा उन्होंने अपनी डों में कमल-पुष्प धारण किये थे। उनके साथ ही वहाँ तेजस्विनी लक्ष्मी देवी की प्रतिमा भी विराजमान थी, जिनका उन हाथियों के द्वारा अभिषेक हो रहा था। उनके हाथ बड़े सुन्दर थे। उन्होंने अपने हाथ में कमल-पुष्प धारण कर रखा था।
इस प्रकार सुन्दर कन्दराओं वाले पर्वत के समान तथा वसन्त-ऋतु में सुन्दर कोटरों वाले परम सुगन्धयुक्त वृक्ष के समान उस शोभायमान मनोहर भवन (विमान) में पहुँचकर हनुमान जी बड़े विस्मित हुए।
तदनन्तर दशमुख रावण के बाहुबल से पालित उस प्रशंसित पुरी में जाकर चारों ओर घूमने पर भी पति के गुणों के वेग से पराजित (विमुग्ध) अत्यन्त दुःखिनी और परम पूजनीया जनककिशोरी सीता को न देखकर कपिवर हनुमान् बड़ी चिन्ता में पड़ गये।
महात्मा हनुमान जी अनेक प्रकार से परमार्थचिन्तन में तत्पर रहने वाले कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरण वाले) सन्मार्गगामी तथा उत्तम दृष्टि रखने वाले थे। इधर-उधर बहुत घूमने पर भी जब उन महात्मा को जानकीजी का पता न लगा, तब उनका मन बहुत दुःखी हो गया।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७॥