सचेतन 2.16: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – प्रत्युपकार करना धर्म है।
प्रत्युपकार (किसी उपकार के बदले में सत्कार ग्रहण करने से सम्मान होना) करने की इच्छा से सागर ने बड़े आदर से मैनाक पर्वत को नियुक्त किया था। कपिवर हनुमान ने सौ योजन दूर जाने के लिए आकाश में छलांग मारी है इसीलिए वो कुछ देर विश्राम कर लें और फिर आगे जाएँगे।
मैनाक पर्वत ने कहा की कपिवर आपके साथ हमारा भी कुछ संबंध है आप महान गुणों का संग्रह करने वाले और तीनों लोकों में विख्यात है। इस विषय में तो कहना क्या है कपिश्रेष्ठ आप देव शिरोमणि महात्मा वायु के पुत्र हैं और वेग में भी उन्हीं के समान है, आप धर्म के ज्ञाता है। आपकी पूजा होने पर साक्षात वायुदेव का पूजन हो जाएगा। मैनाक पर्वत ने कहा इसलिए आप अवश्य मेरे पूजनीय हैं।
इसमें एक और भी कारण है, इसे सुनिए तात पूर्वकाल के सतयुग की बात है। उन दिनों पर्वतों के भी पंख होते थे, वे भी गरुड़ के समान वेगशाली होकर संपूर्ण दिशा में उड़ते फिरते थे, उनके इस तरह वेग पूर्वक उड़ने और आने जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों के उनके गिरने की आशंका से बड़ा भय होने लगा इससे सहस्त्रनेत्र वाले देवराज इंद्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपने वज़्र से लाखों पर्वतों के पंख काट डालें उस समय कुपित देवराज इंद्र बज़्र उठाएं मेरी और भी अभी आए किंतु महात्मा वायु ने सहसा मुझे इस समुद्र में गिरा दिया।
वानरश्रेष्ठ इस क्षार समुद्र में गिराकर आपके पिता ने मेरे पंखों की रक्षा कर ली , और मैं अपने संपूर्ण अंश से सुरक्षित बच गया, पवननंदन कपिश्रेष्ठ इसलिए मैं आपका आदर करता हूं, आप मेरे माननीय हैं, आपके साथ मेरा यह संबंध महान गुणों से युक्त है, महामते इस प्रकार चिरकाल के बाद जो यह प्रत्युपकार रूप (आपके पिता के उपकार का बदला चुकाने का अवसर) प्राप्त हुआ है, इसमें आप प्रसंग चित्त होकर मेरी और समुद्र की भी प्रीति का सम्मान संपादन करें (हमारा आतिथ्य ग्रहण करके हमें संतुष्ट करें) वानर शिरोमणि आप यहां अपनी थकान उतारिए, हमारी पूजा ग्रहण कीजिए, और मेरे प्रेम को भी स्वीकार कीजिए।
मनुष्य द्वारा समाज में परस्पर संपर्क क़ायम करने का एक बहुपक्षीय और स्वाभाविक माध्यम है की वो वार्तालाप या बातचीत से अपने विचारो का आदान प्रदान करें। वार्तालाप ही एक विशिष्ट पहचान बनाने का सशक्त माध्यम है आप विनम्रता जैसे तत्वों को अपनाकर वार्तालाप को प्रभावशाली बना सकते है वार्तालाप में सिर्फ बात करना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है अपितु दुसरो कि बातो को ध्यान से सुनना और समझना भी जरूरी होता।
मैं आप जैसे माननीय पुरुष के दर्शन से बहुत प्रसन्न हूं, मैंनाक के ऐसा कहने पर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने इस उत्तम पर्वत से कहा – मैनाक मुझे भी आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई है मेरा आतिथ्य हो गया, अब आप अपने मन से या दुख अथवा चिंता निकाल दीजिए कि इन्होंने मेरी पूजा ग्रहण नहीं की, मेरा कार्य का समय बहुत जल्दी करने के लिए प्रेरित कर रहा है, यह दिन भी बीत जा रहा है, मैंने वानरों के समीप प्रतिज्ञा कर ली है कि मैं यहां बीच में कहीं नहीं ठहर सकता, ऐसा कहकर महाबली वांशिरोमणि हनुमान ने हंसते हुए कहा। वहां मैंनाक का अपने हाथ से स्पर्श किया और आकाश में ऊपर उठकर चलने लगे, उस समय पर्वत और समुद्र दोनों ने ही बड़े आदर से उनकी और देखा, उनका सत्कार किया और यथोचित आशीर्वाद से उनका अभिनंदन किया फिर पर्वत और समुद्र को छोड़कर उनसे दूर ऊपर उठकर अपने पिता के मार्ग का आश्रय ले हनुमान जी निर्मल आकाश में चलने लगे तत्पश्चात और भी ऊंचे उठकर उसे पर्वत को देखते हुए कपिश्रेष्ठ पवन पुत्र हनुमान जी बिना किसी आधार के आगे बढ़ने लगे।
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