सचेतन 248: शिवपुराण- वायवीय संहिता – प्रपंच का शमन आवश्यक है

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सचेतन 248: शिवपुराण- वायवीय संहिता – प्रपंच का शमन आवश्यक है

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बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल पांच योग पंचक हैं 

बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल पांच योग पंचक को जानने की प्रेरणा देता है।पंचक का अर्थ होता है जब हम कोई मांगलिक कार्य या अच्छा करना चाहते हैं लेकिन वह करना मुश्किल हो जाता है या एक तरह की पाँच वस्तुओं का समूह जिसको जानना और उससे जुड़ना ज़रूरी है। पांच योग पंचक हैं- मंत्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और पांचवां महायोग। 
जीवन में पंचशूल लगा रहता है यानी जो मुश्किल आ रही है, वह संकेत देता है कि प्रकृति में भासित पांच प्रकार के प्रपंच होते हैं जिसको समझने की ज़रूरत है। 
प्रपंच यानी पाँच तत्वों के भेद और उनका विस्तार का होना और यह विस्तार कोई बखेड़ा, झंझट, झगड़ा, झमेला आपके जीवन की मुश्किल घड़ी की तरह होता है।तुलसी दास जी अपने रामायण में प्रपंच को बहुत अच्छे से दर्शाते हैं-  जब मंथरा  प्रपंच रच कर कैकेयी से कहती है की – 
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
जिसका भावार्थ है की राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। कौसल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती, इसलिए उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, (भरत की अनुपस्थिति में) राम के राजतिलक के लिए लग्न निश्चय करा लिया॥
यह सुनकर दशरथ और कैकेयी के बीच संवाद होता है जहां फिर से प्रपंच में कैकेयी कहती है की- 
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥
यहाँ कैकेयी महाराज दशरथ  से कहती हैं की आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहाँ आपकी माया (चालबाजी) नहीं लगेगी। या तो मैंने जो माँगा है सो दीजिए, नहीं तो ‘नाहीं’ करके अपयश लीजिए। मुझे बहुत प्रपंच (बखेड़े) नहीं सुहाते॥
यह प्रपंच होता क्या है जिसके सार्थक ज्ञान को समझना ज़रूरी है। 

किसी भी प्रपंच का पहला पंचक है मह तत्व (मन, मनस ), सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण और अहंकार है। और यह पंचक आपके विकास की प्रक्रिया है।
दूसरा पंचक है शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध है यानी आपकी पाँच तन्मात्रा जो पंचभूतों का सूक्ष्म रूप है और प्रधान यह तत्व है जिनसे संसार की सृष्टि हुई है।
तीसरा पंचक – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी है यह पंचतत्व आपका शरीर है। 
चौथा पंचक- कान, त्वचा, आंख, जीभ और नाक है जिसको इंद्रिय कहते हैं। और पांचवां पंचक आपके हाथ, पैर, वाणी, पायु और उपस्थ है जो कर्मेन्द्रिय कहलाती हैं। 
ये सभी पांचों पंचक जगत प्रपंच कहलाते हैं और उन्हें जड़ प्रकृति या माया नाम दिया गया है। 
जब आप इन पंचकों को समझते हैं तो यह प्रकृति का पहला विकास यहाँ से शुरू होता है, जो इस संसार का अकारण कारण है। प्रपंच के प्रभाव से जो प्रकृति विकसित होती है या उत्पन्न होता है तो जीवन का संतुलन ज़रूर बिगड़ जाता है।
विकास की हरेक प्रक्रिया में, महत् के प्रकट होने के बाद, अहंकार, मन, पांच इंद्रिय क्षमताएं, पांच कार्य क्षमताएं, पांच सूक्ष्म तत्व और पांच स्थूल तत्व विकसित होते हैं। यही मूल तत्व मीमांसा यानी किसी भी अच्छे या बुरे काम का गंभीर मनन और विचार करके आप किसी भी चीज का निर्माण करते हैं।
इन जड़ वृत्तियों को यानी जगत के प्रपंच को शमन या शांति करना ही ज्ञान कहते हैं। बिना ठीक से जाने समझे, अनुभव किये इस जगत प्रपंच को त्याज्य मानकर त्याग देना भी अज्ञान है। इस प्रपंच के अंधकार को हटाने के लिए ज्ञान का दीपक जलाना पड़ता है। इस ज्ञान ज्योति के हृदय में उदय लेते ही सारे अज्ञान का अंधकार क्षण भर में मिट जाते हैं।

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