सचेतन 235: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भगवान शिव की परीक्षा
शिव भक्त उपमन्यु अपने तप के दौरान “नमः शिवाय” मंत्र का उच्चारण करते रहे।
उपमन्यु अपनी माँ से प्राप्त पंचाक्षर मंत्र का ज्ञान और आज्ञा को ग्रहण करके अपनी आपत्तियों के निवारण हेतु तपस्या के लिए विदा हो गये।
जाते समय उस महातेजस्वी उपमन्यु बालक ने कहा – ‘माँ ! चिंता न करो अगर माता पार्वती सहित भगवान शिव विद्यमान हैं तो मैं उनको तपस्या से प्रसन्न करूंगा और देर या जल्दी उनसे मनोवांछित वर प्राप्त करूंगा।’
ऐसा कहकर माता का आशीर्वाद लेकर उपमन्यु ने हिमालय पर्वत के एक शिखर पर जाकर भगवान शिव की कठोर तपस्या आरम्भ की।
वे मिट्टी की एक शिवलिंग बनाकर पंचाक्षर मंत्र के द्वारा एकाग्रचित्त होकर भगवान शिव की पूजा आराधना करने लगे। इस प्रकार वे बहुत समय तक उस तपस्या में लगे रहे।
कठिन तप के कारण उनका शरीर कृशकाय हो गया। उस एकाकी कृशकाय बालक उपमन्यु को शिव में मन लगाकर तपस्या करते देख ऋषि मरीचि के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हुए कुछ मुनियों ने अपने राक्षस स्वभाव के कारण सताना और उनके तप में विघ्न डालना आरम्भ किया।
उनके द्वारा सताए जाने पर भी शिव भक्त उपमन्यु किसी प्रकार तप में लगे रहे और “नमः शिवाय” मंत्र का जोर जोर से उच्चारण करते रहे।
उस शब्द को सुनते ही उनकी तपस्या में विघ्न डालने वाले वे मुनि उस बालक को सताना छोड़कर उसकी सेवा करने लगे। ब्राह्मण बालक महात्मा उपमन्यु की उस तपस्या से सम्पूर्ण चराचर जगत प्रदीप्त एवं संतप्त हो उठा।
भगवान शिव की परीक्षा-
तब भगवान विष्णु के अनुरोध करने पर शिवजी ने बालक उपमन्यु के संकल्प की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनके पास देवराज इन्द्र के रूप में जाने का विचार किया।
फिर श्वेत ऐरावत हाथी पर सवार होकर स्वयं देवराज इन्द्र का शरीर ग्रहण करके भगवान शिव देवता, असुर, सिद्ध और नागों के साथ बालक उपमन्यु के पास पहुँचे।
इन्द्र रूप में आए भगवान शिव को देखकर उपमन्यु ने उनको प्रणाम करके उनकी स्तुति की। तब इन्द्र रूपधारी शिव बोले – ‘हे उपमन्यु, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर मांगो। मैं तुम्हें सभी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करूँगा’
यह सुनकर उपमन्यु बोले – ‘ भगवन, अगर आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे शिव भक्ति प्रदान करें। ‘
तब इन्द्र बोले – ‘ हे तपस्वी, तुम मुझे नहीं जानते मैं देवताओं का राजा और तीनों लोकों का अधिपति इन्द्र हूँ, सभी देवता मुझे नमस्कार करते हैं तुम मेरी शरण में आ जाओ मैं तुम्हें सबकुछ दूँगा।
उस निर्गुण रूद्र को त्याग दो। उस निर्गुण शिव की भक्ति से तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध होगा, जो देवताओं की पंक्ति से बाहर होकर पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है।’
यह सुनकर परम बुद्धिमान शिव भक्त उपमन्यु इन्द्र को अपनी तपस्या में विघ्न डालने वाला जानकर बोले – ‘हे देवराज, यद्यपि आप भगवान शिव की निंदा में तत्पर हैं फिर भी आपने उन्हें निर्गुण कहकर उनकी महत्ता को स्पष्ट कर दिया है। आप नहीं जानते की वो देवों के भी ईश्वर तथा प्रकृति से परे हैं।
तत्वज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट जानकर जिनकी उपासना करते हैं मैं उन्हीं भगवान शिव से वर मांगूँगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगा पर अपने इष्ट की निंदा नहीं सुनूँगा।
दूध के लिए जो मेरी इक्षा है वो यों ही रह जाये पर शिवास्त्र के द्वारा तुम्हारा वध करके मैं अपने इस शरीर को त्याग दूंगा। ‘
ऐसा कहकर स्वयं मर जाने का निश्चय करके उपमन्यु इन्द्र का वध करने के लिए उद्यत हो गए।
उन्होंने अघोर अस्त्र से अभिमंत्रित भस्म लेकर इन्द्र के उद्देश्य से छोड़ दिया और बड़े जोर से सिंहनाद किया और फिर भगवान शम्भु के चरणों का ध्यान करते हुए अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म करने के लिए उद्यत हो गए और आग्नेयी धारणा धारण करके स्थित हुए।
शिव भक्त उपमन्यु जब इस प्रकार स्थित हुए तब भगवान शिव ने योगी उपमन्यु की उस आग्नेयी धारणा को अपनी सौम्य दृष्टि से रोक दिया।
उपमन्यु के छोड़े हुए उस अघोरास्त्र को भगवान की आज्ञा से शिववल्लभ नंदी ने बीच में ही पकड़ लिया।