सचेतन 256: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भाव योग
समत्व-बुद्धि का भाव योग का प्रथम सोपान है
दूसरों के प्रति समान भाव का उद्भव ही समत्व बुद्धि होना है। राग व द्वेष के कारण ही हम अपने से दूसरों को अलग समझने की नादानी करते हैं। ये राग-द्वेष ही काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को बढ़ाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि इन पांचों दोषों के कारण ही मानव में राग-द्वेष पनपते हैं। समत्व-बुद्धि का भाव योग का प्रथम सोपान है। कर्म योग की चर्चा में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझकर ही युद्ध में आरूढ़ होने से ही मनुष्य पाप का भागी नहीं बनेगा। इन विरोधाभासी स्थितियों में समभाव रखना चाहिए। सदाचरण के विरोधी इस समत्व से अपनी मनमर्जी करने में समर्थ हो सकते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय पराजय आदि को समान मानने की साधना इन्हें मूल्यों से रिक्त करने की साधना है। यह स्थिति राग और द्वेष के परित्याग के बिना पूरी नहीं की जा सकती। राग-द्वेष मन में बसे हुए हैं, यदि इनका परित्याग हो जाता है तो प्रत्यक्षत: मन का भी परिष्कार हो जाता है। यही वह साधना की सीढ़ी है जो साधक की जीवन दृष्टि को बदल देती है।