सचेतन 2.52: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – रावण को देखकर दुःख, भय और चिन्ता में डूबी हुई सीता की अवस्था का वर्णन

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सीता माता का आत्मज्ञानी राजसिंह भगवान् श्रीराम के पास जाने का संकल्प के घोड़ों से जुते हुए मनोमय रथ पर सवार हुई-सी प्रतीत होती थीं। 

अपनी स्त्रियों से घिरे हुए रावण का अशोकवाटिका में आगमन हुआ और हनुमान जी ने उसे देखा। उस समय वायुनन्दन कपिवर हनुमान जी ने उन परम सुन्दरी रावणपत्नियों की करधनी का कलनाद और नूपुरों की झनकार सुनी। साथ ही, अनुपम कर्म करने वाले तथा अचिन्त्य बल-पौरुष से सम्पन्न रावण को भी कपिवर हनुमान् ने देखा, जो अशोकवाटिका के द्वार तक आ पहुँचा था। उसके आगे-आगे सुगन्धित तेल से भीगी हुई और स्त्रियों द्वारा हाथों में धारण की हुई बहुत-सी मशालें जल रही थीं, जिनके द्वारा वह सब ओर से प्रकाशित हो रहा था। वह काम, दर्प और मद से युक्त था। उसकी आँखें टेढ़ी, लाल और बड़ी-बड़ी थीं। वह धनुषरहित साक्षात् कामदेव के समान जान पड़ता था। उसका वस्त्र मथे हुए दूध के फेन की भाँति श्वेत, निर्मल और उत्तम था। उसमें मोती के दाने और फूल टँके हुए थे। वह वस्त्र उसके बाजूबंद में उलझ गया था और रावण उसे खींचकर सुलझा रहा था। 

अशोक-वृक्ष के पत्तों और डालियों में छिपे हुए हनुमान् जी सैकड़ों पत्रों तथा पुष्पों से ढक गये थे। उसी अवस्था में उन्होंने निकट आये हुए रावण को पहचानने का प्रयत्न किया। उसकी ओर देखते समय कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने रावण की सुन्दरी स्त्रियों को भी लक्ष्य किया, जो रूप और यौवन से सम्पन्न थीं। उन सुन्दर रूपवाली युवतियों से घिरे हुए महायशस्वी राजा रावण ने उस प्रमदावन में प्रवेश किया, जहाँ अनेक प्रकार के पशु-पक्षी अपनी-अपनी बोली बोल रहे थे। 

वह मतवाला दिखायी देता था। उसके आभूषण विचित्र थे। उसके कान ऐसे प्रतीत होते थे, मानो वहाँ खूटे गाड़े गये हैं। इस प्रकार वह विश्रवामुनि का पुत्र महाबली राक्षसराज रावण हनुमान जी के दृष्टिपथ में आया। ताराओं से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति वह परम सुन्दरी युवतियों से घिरा हुआ था। महातेजस्वी महाकपि हनुमान् ने उस तेजस्वी राक्षस को देखा और देखकर यह निश्चय किया कि यही महाबाहु रावण है। पहले यही नगर में उत्तम महल के भीतर सोया हुआ था। ऐसा सोचकर वे वानरवीर महातेजस्वीपवनकुमार हनुमान् जी जिस डाली पर बैठे थे, वहाँ से कुछ नीचे उतर आये (क्योंकि वे निकट से रावण की सारी चेष्टाएँ देखना चाहते थे)। 

यद्यपि मतिमान् हनुमान जी भी बड़े उग्र तेजस्वी थे, तथापि रावण के तेजसे तिरस्कृत-से होकर सघन पत्तों में घुसकर छिप गये। उधर रावण काले केश, कजरारे नेत्र, सुन्दर कटिभाग और परस्पर सटे हुए स्तनवाली सुन्दरी सीता को देखने के लिये उनके पास गया। 

उस समय अनिन्दिता सुन्दरी राजकुमारी सीता ने जब उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित तथा रूप यौवन से सम्पन्न राक्षसराज रावण को आते देखा, तब वे प्रचण्ड हवा में हिलने वाली कदली के समान भय के मारे थर-थर काँपने लगीं। सुन्दर कान्तिवाली विशाललोचना जानकी ने अपनी जाँघों से पेट और दोनों भुजाओं से स्तन छिपा लिये तथा वहाँ बैठी-बैठी वे रोने लगीं। 

राक्षसियों के पहरे में रहती हुई विदेहराजकुमारी सीता अत्यन्त दीन और दुःखी हो रही थीं। वे समुद्र में जीर्ण-शीर्ण होकर डूबी हुई नौका के समान दुःख के सागर में निमग्न थीं। उस अवस्था में दशमुख रावण ने उनकी ओर देखा। वे बिना बिछौने के खुली जमीन पर बैठी थीं और कटकर पृथ्वी पर गिरी हुई वृक्ष की शाखा के समान जान पड़ती थीं। उनके द्वारा बड़े कठोर व्रत का पालन किया जा रहा था। 

उनके अंगों में अंगराग की जगह मैल जमी हुई थी। वे आभूषण धारण तथा शृंगार करने योग्य होने पर भी उन सबसे वञ्चित थीं और कीचड़ में सनी हुई कमलनाल की भाँति शोभा पाती थीं तथा नहीं भी पाती थीं (कमलनाल जैसे सुकुमारता के कारण शोभा पाती है और कीचड़ में सनी रहने के कारण शोभा नहीं पाती, वैसे ही वे अपने सहज सौन्दर्य से सुशोभित थीं, किंतु मलिनता के कारण शोभा नहीं देती थीं।

संकल्पों के घोड़ों से जुते हुए मनोमय रथ पर चढ़कर आत्मज्ञानी राजसिंह भगवान् श्रीराम के पास जाती हुई-सी प्रतीत होती थीं।

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