सचेतन- बुद्धचरितम् 31 महात्मा बुद्ध का अंतिम सम्मान

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सचेतन- बुद्धचरितम् 31 महात्मा बुद्ध का अंतिम सम्मान

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जब महात्मा बुद्ध ने संसार से विदा ली और सदा के लिए शांत हो गए, तब उनके भक्तों और अनुयायियों को बहुत दुख हुआ। मल्ल वंश के लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को बड़े आदर के साथ सोने की पालकी (स्वर्णमयी शिविका) में रखा। वे पालकी को अपने कंधों पर उठाकर नगर के मुख्य द्वार से बाहर लेकर गए।

नगर से बाहर निकलकर वे हिरण्यवती नदी पार करके एक पवित्र स्थान पर पहुँचे, जहाँ उन्होंने “मुकुट चैत्य” नामक स्थान के नीचे बुद्ध के लिए एक सुंदर चिता बनायी।

जैसे ही वे यह सब कर रहे थे, तभी आकाश से देवता फूलों की वर्षा करने लगे। यह फूल नन्दन वन के सुंदर पुष्प थे। गन्धर्व लोग आकर मधुर गीत गाने लगे और नृत्य प्रस्तुत करने लगे। कुछ लोगों ने बुद्ध के स्तोत्रों का पाठ करके उन्हें श्रद्धांजलि दी।

इसके बाद बुद्ध के शरीर को चिता पर रखा गया और तीन बार चिता जलाने की कोशिश की गई, लेकिन चिता जल नहीं पाई। इसका कारण यह था कि बुद्ध के प्रिय शिष्य महाकश्यप अभी तक पहुँचे नहीं थे।

जब महाकश्यप वहाँ आए और उन्होंने बुद्ध के दर्शन किए, तब जैसे ही उन्होंने श्रद्धा से नमन किया, चिता अपने आप जल उठी। यह एक अद्भुत दृश्य था।

चिता की अग्नि ने बुद्ध के चर्म (त्वचा), मांस आदि को भस्म कर दिया, लेकिन उनकी हड्डियाँ नहीं जलीं। यह देखकर सभी श्रद्धा से भर उठे।

इसके बाद मल्लों ने उन पवित्र अस्थियों को धोया, और एक सुंदर स्वर्ण कलश में रखकर अपने नगर में आदरपूर्वक स्थापित कर दिया।

इस प्रकार महात्मा बुद्ध को परम सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई, और उनकी स्मृति को नगर में स्थायी रूप से स्थापित कर दिया गया।

बुद्ध की धातु और स्तूप निर्माण की कथा

गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के कुछ समय बाद, पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने अपने-अपने दूत मल्लों के पास भेजे। उन दूतों ने मल्लों से विनती की कि वे बुद्ध की अस्थियाँ (धातु) उन्हें दे दें, ताकि वे भी श्रद्धा से पूजन कर सकें। लेकिन मल्लों ने यह माँग ठुकरा दी।

दूतों ने जाकर अपने-अपने राजाओं को यह बात बताई। तब सात राजाओं का एक समूह इकट्ठा हुआ और उन्होंने मल्लों पर चढ़ाई कर दी। इसी समय ‘द्रोण’ नामक एक ब्राह्मण वहाँ पहुँचे। उन्होंने युद्ध रोकने और शांति स्थापित करने का प्रयास किया।

पहले द्रोण ने सातों राजाओं को समझाया। राजाओं ने कहा, “हमें तो शांति ही चाहिए, लेकिन मल्ल लोग तैयार नहीं हैं।” फिर द्रोण ब्राह्मण मल्लों के पास गए और उन्हें भी समझाया। अंततः मल्ल भी समझ गए और सभी सहमत हो गए।

इसके बाद बुद्ध की धातु को आठ भागों में बाँट दिया गया।

  • सात भाग सात राजाओं को दिए गए
  • एक भाग मल्लों ने अपने पास रखा

फिर उन सातों राजाओं ने अपने-अपने राज्यों में बुद्ध की धातु से सात स्तूप बनवाए। मल्लों ने भी एक स्तूप बनवाया।

द्रोण ब्राह्मण ने अपने देश में स्तूप बनवाने के लिए केवल धातु का घट (कलश) लिया।
और एक अन्य श्रद्धालु पिसल मुनि ने केवल बुद्ध की भस्म ही ले ली।

इस प्रकार पृथ्वी पर कुल दस स्तूप बने:

  • धातु से बने आठ स्तूप,
  • घट (कलश) से बना नौवाँ स्तूप,
  • भस्म से बना दसवाँ स्तूप

कुछ समय बाद, पाँच प्रमुख भिक्षुओं ने एक गोष्ठी (सभा) की। उन्होंने आनन्द को चुना, ताकि वे तथागत (बुद्ध) के उपदेशों को फिर से दोहराएँ और उन्हें ग्रंथ के रूप में संकलित किया जाए। इसी प्रक्रिया से बुद्ध के उपदेश धर्म ग्रंथों के रूप में स्थापित हुए।

समय बीता, और एक महान सम्राट का जन्म हुआ – सम्राट अशोक
धर्मप्रिय और बुद्ध भक्त अशोक ने उन सातों स्तूपों से बुद्ध की धातु लेकर, एक ही दिन में अस्सी हज़ार स्तूपों में वह धातु स्थापित कर दी।

लेकिन आठवाँ स्तूप, जो रामपुर में स्थित था, वहाँ कोई धातु नहीं ले सका क्योंकि उसकी रक्षा विश्वासी साँपों (नागों) द्वारा की जा रही थी।

सम्राट अशोक ने भले ही सुख-सुविधाओं से भरे जीवन में रहकर राज्य किया, लेकिन उनका मन शुद्ध और धर्ममय रहा। उन्होंने उत्तम धर्म-लाभ प्राप्त किया।

बुद्ध की पूजा करने वाले – चाहे वे उस समय जीवित बुद्ध को नमन करते हों, या आज धातु से बनी मूर्तियों, स्तूपों को पूजते हों – उन्हें सदैव उत्तम फल मिलता है

जो फल बुद्ध के जीवनकाल में उन्हें देखकर नमस्कार करने से मिलता था, वही फल बुद्ध की धातु या स्तूप की पूजा से भी मिलता है – इसमें कोई संदेह नहीं।

यह अंतिम सर्ग केवल बुद्ध के शरीर की धातु के बंटवारे की कथा नहीं है, बल्कि यह बुद्ध की शिक्षाओं के प्रसार, भक्ति की परंपरा, और धर्म की स्थायित्वता का प्रतीक है – जो आज भी श्रद्धालुओं के हृदय में जीवित है।

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