सचेतन 2.13: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – समुद्र में छिपे हुए मैनाक पर्वत का दर्शन
सचेतन 2.13: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – समुद्र में छिपे हुए मैनाक पर्वत का दर्शन
नव वर्ष की शुभकामनाएँ!
हमलोग चर्चा कर रहे थे की हनुमान जी उपमान अलंकार हैं क्योंकि आज के युग में वह अप्रत्यक्ष हैं। वह प्रसिद्ध बिन्दु या प्राणी या पर्वत या समुद्र आदि अभी भी मौजूद है जिसके साथ उपमेय रूप में हनुमान जी की तुलना किए गए हैं। किसी भी व्यक्ति की उपमा के लिए धर्मगत समता हेतु अर्थालंकार यानी दो वस्तुओं में भेद को बताया जा सकता है।
हनुमान जी का उदाहरण बहुत सरल है की आप सिर्फ़ कर्म को विशिष्टता और उत्कृष्टता के साथ करते रहते हैं। विशिष्ट बनने की कोशिश मत कीजिए। अगर आप बस साधारण हैं, दूसरों से ज्यादा साधारण हैं, तो आप असाधारण बन जाएंगे।
कपि श्रेष्ठ को बिना थकावट के सहसा आगे बढ़ते देख नाग, यक्ष और नाना प्रकार के राक्षस सभी उनकी स्तुति करने लगे। जिस समय कपिकेसरी हनुमान्जी उछलकर समुद्र पार कर रहे थे, उस समय इक्ष्वाकु कुल का सम्मान करने की इच्छा से समुद्र ने विचार किया, ‘यदि मैं वानरराज हनुमान्जी की सहायता नहीं करूँगा तो बोलने की इच्छा वाले सभी लोगों की दृष्टि में मैं सर्वथा निन्दनीय हो जाऊँगा। ‘मुझे इक्ष्वाकु कुल के महाराज सगर ने बनाया था। इस समय ये हनुमान्जी भी इक्ष्वाकुवंशी वीर श्री रघुनाथ जी की सहायता कर रहे हैं, अतः इन्हें इस यात्रा में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। ‘मुझे ऐसा कोई उपाय करना चाहिये, जिससे वानरवीर यहाँ कुछ विश्राम कर लें। मेरे आश्रय में विश्राम कर लेने पर मेरे शेष भाग को ये सुगमता से पार कर लेंगे।
यह शुभ विचार करके समुद्र ने अपने जल में छिपे हुए मैनाक से कहा- शैलप्रवर! महामना देवराज इन्द्र ने तुम्हें यहाँ पाताल वासी समूहों के निकलने के मार्ग को रोकने के लिये परिघ रूप से स्थापित किया है। ‘इन असुरों का पराक्रम सर्वत्र प्रसिद्ध है। वे फिर पाताल से ऊपर को आना चाहते हैं। अतः उन्हें रोकने के लिये तुम अप्रमेय पाताल लोक के द्वार को बंद करके खड़े हो।
समुद्र ने आग्रह किया की हे ‘शैल! ऊपर-नीचे और अगल-बगल में सब ओर बढ़ने की तुम में शक्ति है। गिरिश्रेष्ठ ! इसीलिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम ऊपर की ओर उठो। ‘देखो, ये पराक्रमी कपिकेसरी हनुमान् तुम्हारे ऊपर होकर जा रहे हैं। ये बड़ा भयंकर कर्म करने वाले हैं, इस समय श्री राम का कार्य सिद्ध करने के लिये इन्होंने आकाशमें छलाँग मारी है।
अगर किसी चीज़ को दिल से और सेवक बन कर करो तो सारी प्रकृति उसे आगे बढ़ने में लग जाती है
समुद्र ने कहा ये इक्ष्वाकु वंशी राम के सेवक हैं, अतः मुझे इनकी सहायता करनी चाहिये। इक्ष्वाकु वंश के लोग मेरे पूजनीय हैं और तुम्हारे लिये तो वे परम पूजनीय हैं। ‘अतः तुम हमारी सहायता करो। जिससे हमारे कर्तव्य कर्म का ( हनुमान्जीके सत्कार रूपी कार्य का) अवसर बीत न जाय। यदि कर्तव्य का पालन नहीं किया जाय तो वह सत्पुरुषों के क्रोध को जगा देता है। ‘इसलिये तुम पानी से ऊपर उठो, जिससे ये छलाँग मारने वालों में श्रेष्ठ कपिवर हनुमान् तुम्हारे ऊपर कुछ काल तक ठहरें – विश्राम करें। वे हमारे पूजनीय अतिथि भी हैं। ‘देवताओं और गन्धर्वो द्वारा सेवित तथा सुवर्ण मय विशाल शिखर वाले मैनाक! तुम्हारे ऊपर विश्राम करने के पश्चात् हनुमान्जी शेष मार्ग को सुख पूर्वक तय कर लेंगे। ‘ककुत्स्थवंशी श्रीरामचन्द्रजी की दयालुता, मिथिलेश कुमारी सीता का परदेश में रहने के लिये विवश होना तथा वानरराज हनुमान्का परिश्रम देखकर तुम्हें अवश्य ऊपर उठना चाहिये।
यह सुनकर बड़े-बड़े वृक्षों और लताओंसे आवृत सुवर्णमय मैनाक पर्वत तुरंत ही क्षार समुद्रके जलसे ऊपरको उठ गया। जैसे उद्दीप्त किरणों वाले दिवाकर (सूर्य) मेघों के आवरण को भेदकर उदित होते हैं, उसी प्रकार उस समय महासागर के जल का भेदन करके वह पर्वत बहुत ऊँचा उठ गया। समुद्र की आज्ञा पाकर जल में छिपे रहने वाले उस विशालकाय पर्वतने दो ही घड़ी में हनुमान्जी को अपने शिखरों का दर्शन कराया।