सचेतन 2.28: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान् जी विस्मित हो गये
आज हम सुन्दरकाण्ड के तृतीयः सर्गः का आरंभ कर रहे हैं जिसमें लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान् जी का विस्मित होना, निशाचरी लंका का उन्हें रोकना और उनकी मार से विह्वल होकर प्रवेश की अनुमति देना का वर्णन सुनेंगे।
ऊँचे शिखरवाले लंब (त्रिकूट) पर्वतपर जो महान् मेघों की घटा के समान जान पड़ता था, बुद्धिमान् महाशक्तिशाली कपिश्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान् ने सत्त्वगुण का आश्रय ले रात के समय रावणपालित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह नगरी सुरम्य वन और जलाशयों से सुशोभित थी।शरत्काल के बादलों की भाँति श्वेत कान्ति वाले सुन्दर भवन उसकी शोभा बढ़ाते थे। वहाँ समुद्र की गर्जना के समान गम्भीर शब्द होता रहता था। सागर की लहरों को छूकर बहने वाली वायु इस पुरी की सेवा करती थी।
वह अलकापुरी के समान शक्तिशालिनी सेनाओं से सुरक्षित थी। उस पुरी के सुन्दर फाटकों पर मतवाले हाथी शोभा पाते थे। उस पुरी के अन्तर्द्वार और बहिर्टार दोनों ही श्वेत कान्ति से सुशोभित थे।उस नगरी की रक्षा के लिये बड़े-बड़े सर्पो का संचरण (आना-जाना) होता रहता है, इसलिये वह नागों से सुरक्षित सुन्दर भोगवती पुरी के समान जान पड़ती थी। अमरावती पुरी के समान वहाँ आवश्यकता के अनुसार बिजलियों सहित मेघ छाये रहते थे। ग्रहों और नक्षत्रों के सदृश विद्युत्-दीपों के प्रकाश से वह पुरी प्रकाशित थी तथा प्रचण्ड वायु की ध्वनि वहाँ सदा होती रहती थी।
सोने के बने हुए विशाल परकोटे से घिरी हुई लंकापुरी क्षुद्र घंटिकाओं की झनकार से युक्त पताकाओं द्वारा अलंकृत थी। उस पुरी के समीप पहुँचकर हर्ष और उत्साह से भरे हुए हनुमान् जी सहसा उछलकर उसके परकोटे पर चढ़ गये। वहाँ सब ओर से लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान जी का चित्त आश्चर्य से चकित हो उठा।
सुवर्ण के बने हुए द्वारों से उस नगरी की अपूर्व शोभा हो रही थी। उन सभी द्वारों पर नीलम के चबूतरे बने हुए थे। वे सब द्वार हीरों, स्फटिकों और मोतियों से जड़े गये थे। मणिमयी फर्श उनकी शोभा बढ़ा रही थीं। उनके दोनों ओर तपाये सुवर्ण के बने हुए हाथी शोभा पाते थे। उन द्वारों का ऊपरी भाग चाँदी से निर्मित होने के कारण स्वच्छ और श्वेत था। उनकी सीढ़ियाँ नीलम की बनी हुई थीं। उन द्वारों के भीतरी भाग स्फटिक मणि के बने हुए और धूल से रहित थे। वे सभी द्वार रमणीय सभा-भवनों से युक्त और सुन्दर थे तथा इतने ऊँचे थे कि आकाशमें उठे हुए-से जान पड़ते थे।
वहाँ क्रौञ्च और मयूरों के कलरव गूंजते रहते थे, उन द्वारों पर राजहंस नामक पक्षी भी निवास करते थे। वहाँ भाँति-भाँति के वाद्यों और आभूषणों की मधुर ध्वनि होती रहती थी, जिससे लंकापुरी सब ओर से प्रतिध्वनित हो रही थी। कुबेर की अलका के समान शोभा पाने वाली लंकानगरी त्रिकूट के शिखर पर प्रतिष्ठित होने के कारण आकाश में उठी हुई-सी प्रतीत होती थी। उसे देखकर कपिवर हनुमान् को बड़ा हर्ष हुआ।
राक्षसराज की वह सुन्दर पुरी लंका सबसे उत्तम और समृद्धिशालिनी थी। उसे देखकर पराक्रमी हनुमान् इस प्रकार सोचने लगे- रावण के सैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये इस पुरी की रक्षा करते हैं, अतः दूसरा कोई बलपूर्वक इसे अपने काबू में नहीं कर सकता।
केवल कुमुद, अंगद, महाकपि सुषेण, मैन्द, द्विविद, सूर्यपुत्र सुग्रीव, वानर कुशपर्वा और वानरसेना के प्रमुख वीर ऋक्षराज जाम्बवान् की तथा मेरी भी पहुँच इस पुरी के भीतर हो सकती है। फिर महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मण के पराक्रमका विचार करके कपिवर हनुमान् को बड़ी प्रसन्नता हुई।
महाकपि हनुमान् ने देखा, राक्षसराज रावण की नगरी लंका वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दरी युवती के समान जान पड़ती है। रत्नमय परकोटे ही इसके वस्त्र हैं, गोष्ठ (गोशाला) तथा दूसरे-दूसरे भवन आभूषण हैं। परकोटों पर लगे हुए यन्त्रों के जो गृह हैं, ये ही मानो इस लंकारूपी युवती के स्तन हैं। यह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न है। प्रकाशपूर्ण द्वीपों और महान् ग्रहों ने यहाँ का अन्धकार नष्ट कर दिया है।
तदनन्तर वानरश्रेष्ठ महाकपि पवनकुमार हनुमान् उस पुरी में प्रवेश करने लगे। इतने में ही उस नगरी की अधिष्ठात्री देवी लंका ने अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट होकर उन्हें देखा।