सचेतन 2.50: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सीता माता के वात्सल्य रूप का दर्शन
हनुमान जी भयानक राक्षसियों के दृश्य बीच उत्तम शाखावाले उस अशोकवृक्ष को चारों ओर से घिरी हुई सती साध्वी राजकुमारी सीता देवी को देखा और वो वृक्ष के नीचे उसकी जड़ से सटी हुई बैठी थीं। उस समय शोभाशाली हनुमान जी ने जनककिशोरी जानकीजी की ओर विशेष रूप से लक्ष्य किया। उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वे शोक से संतप्त थीं और उनके केशों में मैल जम गयी थी।
जैसे पुण्य क्षीण हो जाने पर कोई तारा स्वर्ग से टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा हो, उसी तरह वे भी कान्तिहीन दिखायी देती थीं। वे आदर्श चरित्र (पातिव्रत्य)-से सम्पन्न तथा इसके लिये सुविख्यात थीं। उन्हें पति के दर्शनके लिये लाले पड़े थे।
वे उत्तम भूषणों से रहित थीं तो भी पति के वात्सल्य से विभूषित थीं (पति का स्नेह ही उनके लिये शृंगार था)। राक्षसराज रावण ने उन्हें बंदिनी बना रखा था। वे स्वजनों से बिछुड़ गयी थीं।
वात्सल्य से विभूषित का अर्थ है की जब हनुमान जी सीता माता को देखा तो उनको लगा पति का स्नेह ही उनके लिये शृंगार था और उस स्नेह के अभाव में उनके हृदय में विरक्ति सी हो गई हो। उनको लगा की जिस प्रकार नायक नायिका के रतिभाव के वर्णन द्वारा श्रृंगार रस माना जाता है, उसी प्रकार सीता जी राम के वियोग का अनुभाव कर रही है और सचारी वात्सल्य रस उनसे झलक रहा था।
संभवतः यह शांत रस जैसा ही था शांत रस सभी भावों से रहित और आध्यात्मिक रूप से भावना युक्त होता है। इसका स्थाई भाव निर्वेद होता है।
जैसे कोई हथिनी अपने यूथ से अलग हो गयी हो, यूथपति के स्नेह से बँधी हो और उसे किसी सिंह ने रोक लिया हो। रावण की कैद में पड़ी हुई सीता की भी वैसी ही दशा थी। वे वर्षाकाल बीत जाने पर शरद्ऋतु के श्वेत बादलों से घिरी हुई चन्द्ररेखा के समान प्रतीत होती थीं।
जैसे वीणा अपने स्वामी की अंगुलियों के स्पर्श से वञ्चित हो वादन आदि की क्रिया से रहित अयोग्य अवस्था में मूक पड़ी रहती है, उसी प्रकार सीता पति के सम्पर्क से दूर होने के कारण महान् क्लेश में पड़कर ऐसी अवस्था को पहुँच गयी थीं, जो उनके योग्य नहीं थी। पति के हित में तत्पर रहने वाली सीता राक्षसों के अधीन रहने के योग्य नहीं थीं; फिर भी वैसी दशा में पड़ी थीं। अशोकवाटिका में रहकर भी वे शोक के सागर में डूबी हुई थीं। क्रूर ग्रह से आक्रान्त हुई रोहिणी की भाँति वे वहाँ उन राक्षसियों से घिरी हुई थीं। हनुमान् जी ने उन्हें देखा। वे पुष्पहीन लता की भाँति श्रीहीन हो रही थीं।
उनके सारे अंगों में मैल जम गयी थी। केवल शरीर-सौन्दर्य ही उनका अलंकार था। वे कीचड़ से लिपटी हुई कमलनाल की भाँति शोभा और अशोभा दोनों से युक्त हो रही थीं। मैले और पुराने वस्त्र से ढकी हुई मृगशावकनयनी भामिनी सीता को कपिवर हनुमान् ने उस अवस्था में देखा।
यद्यपि देवी सीता के मुख पर दीनता छा रही थी तथापि अपने पति के तेज का स्मरण हो आने से उनके हृदय से वह दैन्य दूर हो जाता था। कजरारे नेत्रों वाली सीता अपने शील से ही सुरक्षित थीं।
उनके नेत्र मृगछौनों के समान चञ्चल थे। वे डरी हुई मृगकन्या की भाँति सब ओर सशंक दृष्टि से देख रही थीं। अपने उच्छ्वासों से पल्लवधारी वृक्षों को दग्ध-सी करती जान पड़ती थीं। शोकों की मूर्तिमती प्रतिमा-सी दिखायी देती थीं और दुःख की उठी हुई तरंग-सी प्रतीत होती थीं। उनके सभी अंगों का विभाग सुन्दर था। यद्यपि वे विरह-शोक से दुर्बल हो गयी थीं तथापि आभूषणों के बिना ही शोभा पाती थीं। इस अवस्था में मिथिलेशकुमारी सीता को देखकर पवनपुत्र हनुमान् को उनका पता लग जाने के कारण अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ।
मनोहर नेत्रवाली सीता को वहाँ देखकर हनुमान जी हर्ष के आँसू बहाने लगे। उन्होंने मन-ही-मन श्रीरघुनाथजी को नमस्कार किया।
सीता के दर्शन से उल्लसित हो श्रीराम और लक्ष्मण को नमस्कार करके पराक्रमी हनुमान् वहीं छिपे रहे।