सचेतन 2.79: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सीता जी को हनुमान ने अपनी पीठ पर बैठने का आग्रह किया।
सीता जी हनुमान जी पर वानरोचित चपलता होने का संदेह किया
हनुमान जी ने सीता जी से कहा की मैं अभी आपको इस राक्षसजनित दुःख से छुटकारा दिला दूंगा। सती-साध्वी देवि! आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये।
कपिवर हनुमान जी ने सीता जी से कहा “आपको पीठ पर बैठाकर मैं समुद्र को लाँघ जाऊँगा। मुझ में रावणसहित सारी लंका को भी ढो ले जाने की शक्ति है। ‘मिथिलेश कुमार! रघुनाथ जी प्रस्रवण गिरि पर रहते हैं। मैं आज ही आपको उनके पास पहुँचा दूंगा ठीक उसी तरह, जैसे अग्निदेव हवन किये गये हविष्य को इन्द्र की सेवा में ले जाते हैं।
विदेहनन्दिनि! दैत्यों के वध के लिये उत्साह रखने वाले भगवान् विष्णु की भाँति राक्षसों के संहार के लिये सचेष्ट हुए श्रीराम और लक्ष्मण का आप आज ही दर्शन करेंगी॥ आपके दर्शन का उत्साह मन में लिये महाबली श्री राम पर्वत-शिखर पर अपने आश्रम में उसी प्रकार बैठे हैं, जैसे देवराज इन्द्र गजराज ऐरावत की पीठ पर विराजमान होते हैं। “देवि! आप मेरी पीठ पर बैठिये। शोभने! मेरे कथन की उपेक्षा न कीजिये। चन्द्रमा से मिलने वाली रोहिणी की भाँति आप श्रीरामचन्द्रजी के साथ मिलने का निश्चय कीजिये।
मुझे भगवान् श्रीराम से मिलना है, इतना कहते ही आप चन्द्रमा से रोहिणी की भाँति श्रीरघुनाथजी से मिल जायँगी। आप मेरी पीठ पर आरूढ़ होइये और आकाशमार्ग से ही महासागर को पार कीजिये।
सीता देवी, श्रीराम के साथ मिलने की उत्सुकता से हनुमान को अपनी पीठ पर बैठने को तैयार हिती है क्या? क्या हनुमान जी समुद्र को लाँघकर श्रीराम के संदेश को पहुँचा पाएंगे? इस अद्वितीय कहानी से हम बहुत कुछ सीखते हैं-
हनुमान जी कहते हैं “कल्याणि! मैं आपको लेकर जब यहाँ से चलूँगा, उस समय समूचे लंका-निवासी मिलकर भी मेरा पीछा नहीं कर सकते॥ ‘विदेहनन्दिनि ! जिस प्रकार मैं यहाँ आया हूँ, उसी तरह आपको लेकर आकाशमार्ग से चला जाऊँगा, इसमें संदेह नहीं है आप मेरा पराक्रम देखिये’।
सीता देवी ने हनुमान के वचनों का विस्मय और हर्ष से आदम्य जवाब दिया।
सीता जी कहती हैं की “वानरयूथपति हनुमान् ! तुम इतने दूर के मार्ग पर मुझे कैसे ले चलना चाहते हो? तुम्हारे इस दुःसाहस को मैं वानरोचित चपलता ही समझती हूँ।
मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा ।।
अतः मेरे हृदय मे बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर राक्षसो को कैसे जीतेंगे!) यह सुनकर हनुमान् जी ने अपना शरीर प्रकट किया । सोने के पर्वत ( सुमेरू ) के आकार का ( अत्यंत विशाल ) शरीर था, जो युद्ध मे शत्रुओ के हृदय मे भय उत्पन्न करने वाला , अत्यंत बलवान् और वीर था।
हनुमान के मन में एक नया विचार उदय हुआ।
हनुमान: “वे सोचने लगे—’कजरारे नेत्रोंवाली विदेहनन्दिनी सीता मेरे बल और प्रभाव को नहीं जानतीं। इसलिये आज मेरे उस रूप को, जिसे मैं इच्छानुसार धारण कर लेता हूँ, ये देख लें’॥
हनुमान ने उस समय सीता को अपना स्वरूप दिखाया॥
हनुमान जी “वे बुद्धिमान् कपिवर उस वृक्ष से नीचे कूद पड़े और सीताजी को विश्वास दिलाने के लिये बढ़ने लगे। बात-की-बात में उनका शरीर मेरुपर्वत के समान ऊँचा हो गया। वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी प्रतीत होने लगे। इस तरह विशाल रूप धारण करके वे वानरश्रेष्ठ हनुमान् सीताजी के सामने खड़े हो गये।
हनुमान जी “तत्पश्चात् पर्वत के समान विशालकाय, तामे के समान लाल मुख तथा वज्र के समान दाढ़ और नखवाले भयानक महाबली वानरवीर हनुमान् विदेहनन्दिनी से इस प्रकार बोले- ‘देवि! मुझमें पर्वत, वन, अट्टालिका, चहारदिवारी और नगरद्वार सहित इस लङ्कापुरी को रावण के साथ ही उठा ले जाने की शक्ति है॥
फिर सीता जी से कहा ‘अतः आप मेरे साथ चलने का निश्चय कर लीजिये। आपकी आशङ्का व्यर्थ है। देवि! विदेहनन्दिनि! आप मेरे साथ चलकर लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी का शोक दूर कीजिये’।
सीता जी ने कहा “महाकपे! मैं तुम्हारी शक्ति और पराक्रम को जानती हूँ। वायु के समान तुम्हारी गति और अग्नि के समान तुम्हारा अद्भुत तेज है। ‘वानरयूथपते! दूसरा कोई साधारण वानर अपार महासागर के पार की इस भूमि में कैसे आ सकता है। ‘मैं जानती हूँ’ तुम समुद्र पार करने और मुझे ले जाने में भी समर्थ हो, तथापि तुम्हारी तरह मुझे भी अपनी कार्यसिद्धि के विषय में अवश्य भलीभाँति विचार कर लेना चाहिये।”
इस संवाद से हमें मिलता है कि सीता माता और हनुमान जी के बीच एक गहरा संबंध है, जो स्नेह और विश्वास से भरा है। आगे और क्या होगा, यह हमें आगामी कथा में मिलेगा। तब तक, धन्यवाद।