सचेतन 2.22: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – विनम्रता से शक्ति प्राप्त होती है।
हनुमान जी समुद्र को लाँघ जाने के बाद अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये।
धैर्य, सूझ, बुद्धि और कुशलता—ये चार गुणों के परिचय देने बाद हनुमान जी आकाश में चढ़कर गरुड़ के समान वेग से चलने लगे। सौ योजन के अन्त में प्रायः समुद्र के पार पहुँचकर जब उन्होंने सब ओर दृष्टि डाली, तब उन्हें एक हरी भरी वनश्रेणी दिखायी दी।
आकाश में उड़ते हुए ही शाखामृगों में श्रेष्ठ हनुमान् जी ने भाँति-भाँति के वृक्षों से सुशोभित लंका नामक द्वीप देखा। उत्तर तट की भाँति समुद्र के दक्षिण तट पर भी मलय नामक पर्वत और उसके उपवन दिखायी दिये। समुद्र, सागर तटवर्ती जलप्राय देश तथा वहाँ उगे हुए वृक्ष एवं सागर पत्नी सरिताओं के मुहानों को भी उन्होंने देखा।
मन को वश में रखने वाले बुद्धिमान् हनुमान जी ने अपने शरीर को महान् मेघों की घटा के समान विशाल तथा आकाश को अवरुद्ध करता-सा देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया— ‘अहो! मेरे शरीर की विशालता तथा मेरा यह तीव्र वेग देखते ही राक्षसों के मन में मेरे प्रति बड़ा कौतूहल होगा—वे मेरा भेद जानने के लिये उत्सुक हो जायेंगे।’ परम बुद्धिमान् हनुमान जी के मन में यह धारणा पक्की हो गयी।
मनस्वी हनुमान् अपने पर्वताकार शरीर को संकुचित करके पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये। ठीक उसी तरह, जैसे मन को वश में रखने वाला मोहरहित पुरुष अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है।
लघुता से प्रभुता मिले।
विनम्र बनने से आपको शक्ति प्राप्त होती है। जब आप अपने आपको सूक्ष्म बनते हैं तो आपमें विनम्रता बढ़ती है और इससे आप बहुत कुछ इकट्ठा कर सकते हैं। और जब बड़ा बनकर दिखावा करते हैं तो अहंकारी बढ़ता है जिससे आप अपने लिए बहुत सारा शत्रु बना लेते हैं।
जैसे बलि के पराक्रम सम्बन्धी अभिमान को हर लेने वाले श्रीहरि ने विराट रूप में तीन पग चलकर तीनों लोकों को नाप लेने के पश्चात् अपने उस स्वरूप को समेट लिया था, उसी प्रकार हनुमान जी समुद्र को लाँघ जाने के बाद अपने उस विशाल रूप को संकुचित करके अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये।
हनुमान जी बड़े ही सुन्दर और नाना प्रकार के रूप धारण कर लेते थे। उन्होंने समुद्र के दूसरे तट पर, जहाँ दूसरों का पहुँचना असम्भव था, पहुँचकर अपने विशाल शरीर की ओर दृष्टिपात किया।
फिर अपने कर्तव्य का विचार करके छोटा-सा रूप धारण कर लिया। महान् मेघ-समूह के समान शरीर वाले महात्मा हनुमान जी केवड़े, और नारियल के वृक्षों से विभूषित लंबे पर्वत के विचित्र लघु शिखरों वाले महान् समृद्धिशाली शृङ्ग पर कूद पड़े।
तदनन्तर समुद्र के तटपर पहुँचकर वहाँ से उन्होंने एक श्रेष्ठ पर्वत के शिखर पर बसी हुई लंका को देखा। देखकर अपने पहले रूप को तिरोहित करके वे वानरवीर वहाँ के पशु-पक्षियों को व्यथित करते हुए उसी पर्वत पर उतर पड़े॥
इस प्रकार दानवों और साँसे भरे हुए तथा बड़ी बड़ी उत्ताल तरङ्गमालाओं से अलंकृत महासागर को बलपूर्वक लाँघकर वे उसके तट पर उतर गये और अमरावती के समान सुशोभित लंकापुरी की शोभा देखने लगे।
अब हनुमान जी के अवलोकन वाले गुण का वर्णन आगे करेंगे। अवलोकन को आँकड़ा संग्रह की एक प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया जा सकता है। आप किसी चीज को प्रत्यक्ष रूप में कैसे देख सकते हैं। एक शोधकर्ता का गुण बनाकर किसी चीज का निरीक्षण कैसे कर सकते हैं।
अवलोकन का सामान्य अर्थ होता है — देखना, निरीक्षण करना लेकिन अध्यात्म जगत में अवलोकन का अर्थ हो जाता है अपने भीतर देखना; अपने भावों-विचारों का सूक्ष्म निरीक्षण करना।