सचेतन 2.101 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – रावण की सभा में विभीषण की सलाह

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प्राचीन कथाओं की गूंज

नमस्कार और स्वागत है “प्राचीन कथाओं की गूंज” में, सचेतन में जहाँ हम आपके लिए लाते हैं ऐतिहासिक और पौराणिक कहानियाँ। आज के विचार की कड़ी में हम जानेंगे कि कैसे विभीषण ने रावण को हनुमान जी के वध से रोका। आइये, सुनते हैं ये रोमांचक कथा।

जब वानरशिरोमणि महात्मा हनुमान जी ने रावण के सामने अपना वचन सुनाया, तो रावण क्रोध से भर गया। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी— “इस वानर का वध कर डालो।” लेकिन तभी विभीषण, जो वहां मौजूद थे, इस आज्ञा का अनुमोदन नहीं कर सके क्योंकि हनुमान जी ने अपने को सुग्रीव और श्रीराम का दूत बताया था।

राक्षसराज रावण क्रोध से भरा हुआ था, दूसरी ओर वह दूत के वध का कार्य करना था। यह सब जानकर यथोचित कार्य के सम्पादन में लगे हुए विभीषण ने समयोचित कर्तव्य का निश्चय किया। उन्होंने पूजनीय ज्येष्ठ भ्राता शत्रुविजयी रावण से शान्तिपूर्वक यह हितकर वचन कहा— ‘राक्षसराज! क्षमा कीजिये, क्रोध को त्याग दीजिये, प्रसन्न होइये और मेरी यह बात सुनिये। ऊँच-नीच का ज्ञान रखने वाले श्रेष्ठ राजालोग दूत का वध नहीं करते।'”

विभीषण ने रावण को समझाने का प्रयास किया कि एक दूत का वध करना धर्म के विरुद्ध है। उन्होंने कहा, “वीर महाराज! इस वानर को मारना धर्म के विरुद्ध और लोकाचार की दृष्टि से भी निन्दित है। आप-जैसे वीर के लिये तो यह कदापि उचित नहीं है। आप धर्म के ज्ञाता, उपकार को मानने वाले और राजधर्म के विशेषज्ञ हैं।

रावण का वचन अनेक दोषों से युक्त और पाप का मूल था। उसे सुनकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विभीषण ने उत्तम कर्तव्य का निश्चय कराने वाली बात कही— ‘लङ्केश्वर ! प्रसन्न होइये। राक्षसराज! मेरे धर्म और अर्थतत्त्व से युक्त वचन को ध्यान देकर सुनिये। राजन्! सत्पुरुषों का कथन है कि दूत कहीं किसी समय भी वध करने योग्य नहीं होते।

विभीषण ने रावण को बताया कि दूत के लिए अन्य प्रकार के दण्ड होते हैं, जैसे किसी अंग को भंग या विकृत कर देना, कोड़े से पिटवाना, सिर मुड़वा देना, या शरीर में कोई चिह्न दाग देना। वध का दण्ड उचित नहीं है। विभीषण ने यह भी कहा, “आपकी बुद्धि धर्म और अर्थ की शिक्षा से युक्त है। आप ऊँच-नीच का विचार करके कर्तव्य का निश्चय करने वाले हैं।”

वीर! धर्म की व्याख्या करने, लोकाचार का पालन करने अथवा शास्त्रीय सिद्धान्त को समझने में आपके समान दूसरा कोई नहीं है। आप सम्पूर्ण देवताओं और असुरों में श्रेष्ठ हैं। पराक्रम और उत्साह से सम्पन्न जो मनस्वी देवता और असुर हैं, उनके लिये भी आपपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। आप अप्रमेय शक्तिशाली हैं।

विभीषण के तर्क और उनकी सत्यनिष्ठा ने अंततः रावण को हनुमान जी के वध से रोका। रावण ने उनकी बात मानी और हनुमान जी को अन्य दण्ड देने का निर्णय लिया।

रावण ने कहा, ‘इस वानर को मारने में मुझे कोई लाभ नहीं दिखायी देता। जिन्होंने इसे भेजा है, उन्हीं को यह प्राणदण्ड दिया जाय। यह भला हो या बुरा, शत्रुओं ने इसे भेजा है; अतः यह उन्हीं के स्वार्थ की बात करता है। दूत सदा पराधीन होता है, अतः वह वध के योग्य नहीं होता है।

इस प्रकार, विभीषण की बुद्धिमत्ता और धर्म के प्रति उनकी निष्ठा ने एक अनावश्यक हत्या को रोका। उनकी यह भूमिका हमें यह सिखाती है कि क्रोध और प्रतिशोध के समय में भी हमें धर्म और नैतिकता का पालन करना चाहिए।

यह प्राचीन कथाओं की गूंज है विभीषण और रावण की इस अद्भुत कहानी – रावण की सभा में विभीषण की सलाह

रावण का सभा महल शांति और रहस्य के साथ महसूस हो रहा था। लंका की नगरी में, जहां राक्षसराज रावण की सभा में विभीषण ने दी महत्वपूर्ण सलाह। 

जब हनुमानजी लंका नगरी में पहुँचे और उन्होंने अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट की, तब रावण को यह खबर मिली। रावण ने क्रोधित होकर हनुमानजी को बंदी बना लिया और अपनी सभा में ले आया। वहीं, रावण के छोटे भाई विभीषण ने महत्वपूर्ण सलाह दी।

विभीषण कहते हैं की महाराज, शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले वीर, आपको इस दूत के वध के लिए कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। आप तो इतने समर्थ हैं कि इन्द्र सहित समस्त देवताओं पर चढ़ाई कर सकते हैं।युद्धप्रेमी महाराज, अगर आप इस दूत को नष्ट कर देंगे, तो मैं नहीं देखता कि कोई और ऐसा प्राणी होगा, जो उन दोनों स्वतंत्र प्रकृति के राजकुमारों को युद्ध के लिए तैयार कर सके। आप तो देवताओं और दैत्यों के लिए भी दुर्जय हैं, इसलिए इन पराक्रमी राक्षसों के मन में जो युद्ध का हौसला है, उसे नष्ट करना उचित नहीं होगा।

मेरी राय यह है कि उन विरह-दुःख से विकलचित्त राजकुमारों को कैद करके, शत्रुओं पर आपका प्रभाव डालने और दबदबा जमाने के लिए, आपकी आज्ञा से थोड़ी-सी सेना के साथ कुछ ऐसे योद्धा यहाँ से यात्रा करें, जो हितैषी, शूरवीर, सावधान, अधिक गुणवाले, महान कुल में उत्पन्न, मनस्वी, शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, अपने रोष और जोश के लिए प्रशंसित तथा अधिक वेतन देकर अच्छी तरह पाले-पोसे गए हों।

विभीषण के इस उत्तम और प्रिय वचन को सुनकर, निशाचरों के स्वामी तथा देवलोक के शत्रु महाबली राक्षसराज रावण ने बुद्धि से सोच-विचारकर उसे स्वीकार कर लिया। रावण ने विभीषण की बातों में गहरा अर्थ देखा और इसे अपने हित में माना।

दोस्तों, यही थी आज की कहानी विभीषण की सलाह की, जिसने रावण को एक नए दृष्टिकोण से सोचने पर मजबूर कर दिया। अगले एपिसोड में हम जानेंगे कि आगे क्या हुआ। तब तक के लिए, सुनते रहिए “रामायण की कथाएं”। धन्यवाद!

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