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सीता माता के संकल्प घोड़ों से जुते हुए मनोमय रथ पर चढ़ा हुआ था और वह आत्मज्ञानी राजसिंह भगवान् श्रीराम के पास जाती हुई-सी प्रतीत होती थीं। राक्षसियों के पहरे में रहती हुई विदेहराजकुमारी सीता अत्यन्त दीन और दुःखी हो रही थीं।उनका शरीर सूखता जा रहा था। वे अकेली बैठकर रोती तथा श्रीरामचन्द्रजी के ध्यान एवं उनके वियोग के शोक में डूबी रहती थीं। उन्हें अपने दुःख का अन्त नहीं दिखायी देता था। वे श्रीरामचन्द्रजी में अनुराग रखने वाली तथा उनकी रमणीय भार्या थीं। जैसे नागराज की वधू (नागिन) मणि-मन्त्रादि से अभिभूत हो छटपटाने लगती है, उसी तरह सीता भी पति के वियोग में तड़प रही थीं तथा धूम के समान वर्णवाले केतु ग्रह से ग्रस्त हुई रोहिणी के समान संतप्त हो रही थीं। यद्यपि सदाचारी और सुशील कुल में उनका जन्म हुआ था। फिर धार्मिक तथा उत्तम आचार विचारवाले कुल में वे ब्याही गयी थीं—विवाहसंस्कार से सम्पन्न हुई थीं, तथापि दूषित कुल में उत्पन्न हुई नारी के समान मलिन दिखायी देती थीं। वे क्षीण हुई विशाल कीर्ति, तिरस्कृत हुई श्रद्धा, सर्वथा ह्रास को प्राप्त हुई बुद्धि, टूटी हुई आशा, नष्ट हुए भविष्य, उल्लङ्घित हुई राजाज्ञा, उत्पातकाल में दहकती हुई दिशा, नष्ट हुई देवपूजा, चन्द्रग्रहण से मलिन हुई पूर्णमासी की रात, तुषारपात से जीर्ण-शीर्ण हुई कमलिनी, जिसका शूरवीर सेनापति मारा गया हो -ऐसी सेना, अन्धकार से नष्ट हुई प्रभा, सूखी हुई सरिता, अपवित्र प्राणियों के स्पर्श से अशुद्ध हुई वेदी और बुझी हुई अग्निशिखा के समान प्रतीत होती थीं। जिसे हाथी ने अपनी सूंड से हुँडेर डाला हो; अतएव जिसके पत्ते और कमल उखड़ गये हों तथा जलपक्षी भय से थर्रा उठे हों, उस मथित एवं मलिन हुई पुष्करिणी के समान सीता श्रीहीन दिखायी देती थीं। पति के विरह-शोक से उनका हृदय बड़ा व्याकुल था। जिसका जल नहरों के द्वारा इधर-उधर निकाल दिया गया हो, ऐसी नदी के समान वे सूख गयी थीं तथा उत्तम उबटन आदि के न लगने से कृष्णपक्ष की रात्रि के समान मलिन हो रही थीं। उनके अंग बड़े सुकुमार और सुन्दर थे। वे रत्नजटित राजमहल में रहने के योग्य थीं; परंतु गर्मी से तपी और तुरंत तोड़कर फेंकी हुई कमलिनी के समान दयनीय दशा को पहँच गयी थीं।जिसे यूथपति से अलग करके पकड़कर खंभे में बाँध दिया गया हो, उस हथिनी के समान वे अत्यन्त दुःख से आतुर होकर लम्बी साँस खींच रही थीं। बिना प्रयत्न के ही बँधी हुई एक ही लम्बी वेणी से सीता की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे वर्षा-ऋतु बीत जाने पर सुदूर तक फैली हुई हरी-भरी वनश्रेणी से पृथ्वी सुशोभित होती है। वे उपवास, शोक, चिन्ता और भय से अत्यन्त क्षीण, कृशकाय और दीन हो गयी थीं। उनका आहार बहुत कम हो गया था तथा एकमात्र तप ही उनका धन था। वे दुःख से आतुर हो अपने कुलदेवता से हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह प्रार्थना-सी कर रही थीं कि श्रीरामचन्द्रजी के हाथ से दशमुख रावण की पराजय हो। सुन्दर बरौनियों से युक्त, लाल, श्वेत एवं विशाल नेत्रोंवाली सती-साध्वी मिथिलेशकुमारी सीता श्रीरामचन्द्रजी में अत्यन्त अनुरक्त थीं और इधर-उधर देखती हुई रो रही थीं। इस अवस्था में उन्हें देखकर राक्षसराज रावण अपने ही वध के लिये उनको लुभाने की चेष्टा करने लगा।