सचेतन 119 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  रुद्र – शरीर को विकसित करने का विज्ञान है

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सचेतन 119 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता-  रुद्र – शरीर को विकसित करने का विज्ञान है

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संसार के लोगों का सम्बन्ध अनिश्‍चित है!

अगर रुद्र समझना हो तो जीवन में हो रहे ऊर्जा के रूपांतरण को समझें! विज्ञान में, ऊर्जा वस्तुओं का एक गुण है, जो अन्य वस्तुओं को स्थानांतरित किया जा सकता है।  रुद्र के आठ रूपों का उल्लेख सर्व, भव, भीम, उग्र, ईशान, पशुपति, महादेव, असनी के रूप में किया गया है। सर्व नाम जल को दर्शाता है, उग्र हवा है, असनी बिजली है, भव पर्जन्य (मेघ) है, पशुपति पौधा है, ईशान सूर्य है, महादेव चंद्रमा और प्रजापति हैं। इस संदर्भ से यह समझा जा सकता है कि रुद्र के इन आठ रूपों से ही सारा संसार बना है। और आपके शरीर का विज्ञान भी यही है 

सर्व यानी समस्त, आदि से अंत तक, शुरू से आख़िर तक यह पहचान सृष्टीय या  वैश्विक या ब्रह्मांडीय यानी सर्वलोक जैसा समझने का है। The supreme or all-pervading spirit। 

सर्व नाम जल को दर्शाता है यानी यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर पर जल शब्द का प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-आत्मीय सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।

सर्व हो जाना जीवन में एक सम्बन्ध सूचक पहल है। ‘सम’ का अर्थ सम्यक् होता है।’सम्यक्’ का अर्थ पूरी तरह से, चारों ओर से अथवा परिपूर्ण।अर्थात सम्बन्ध शब्द का अर्थ होता है, ‘चारों ओर से बंधन”,’सब प्रकार से बंधन’ अथवा ‘परिपूर्ण बंधन’ अथवा ‘१००% बंधन’ । 

हमारा सबसे बड़ा सम्बन्ध माता-पिता से होता हैं, पहला माता दूसरा पिता फिर भाई-बहन। पति-पत्नी का सम्बन्ध तो बहुत दूर का सम्बन्ध हैं, कहाँ के वो फिर उसके माता-पिता, यह तो केवल इस जन्म में ७ फेरे लिए, और उसका नाम पति-पत्नी हो गया, हमने यह पति-पत्नी का सम्बन्ध इस जन्म में बनाया। यह पति-पत्नी का सम्बन्ध बना-बनाया नहीं था। 

बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है की “इस संसार में कोई भी किसी के सुख के लिए कर्म नहीं कर सकता, सोच नहीं सकता।” तो क्योंकि सब आपने सुख के लिए कर्म करते हैं, इसलिए सब स्वार्थी हैं। 

तो यह जितने सम्बन्ध या सम्बन्धी हमारे संसार में हैं, इनको हम अपना सम्बन्धी इसलिए कहते है, क्योंकि “इनसे हमारे स्वार्थ की सिद्धि होती हैं।” और फिर यह संसार के लोग अर्थात हमारे सम्बन्धी कब तक हमारा साथ देंगे? यह अनिश्‍चित (पता नहीं कितने समय तक) एक बच्चा माँ के पेट से बाहर आया और माँ मृत्यु को प्राप्त हो गयी। वह बच्चा को अभी यही नहीं पता ‘माँ क्या होती है’ और माँ चल बसी। दस दिन बाद पिता भी मृत्यु को प्राप्त हो गया।

अतएव, संसार के लोगों का सम्बन्ध इतना अनिश्‍चित हैं! कि एक छण (पल) का भरोसा नहीं। और अगर हम मान ले की हमारे माता-पिता जिंदा रहे, भाई-बहन जिंदा रहे, पति-पत्नी जिंदा रहे, जीजा-दामाद आदि सभी लोग जिंदा रहे, कोई भी १०० वर्ष तक नहीं मरे ही न। तब भी! अगर वह आपके अनुकूल रहे, आपके स्वार्थ की सिद्धि करे, तभी सम्बन्ध बना रहेगा। 

यानि संसार में जब तक सम्बन्ध था, वह स्वार्थ के आधार पर ही था। तो ‘सम’ का अर्थ परिपूर्ण और पूर्ण। अतएव संसार का संबंध तो परिपूर्ण हो ही नहीं सकता है। क्योंकि यह स्वार्थ का संबंध है, और पूर्ण नहीं है क्योंकि छणिक (कुछ समय के लिए) है।

सर्व यानी समस्त, आदि से अंत तक, शुरू से आख़िर तक यह पहचान सृष्टीय या  वैश्विक या ब्रह्मांडीय यानी सर्वलोक जैसा समझना और ‘सम्बन्ध’ शब्द सिर्फ़ भगवान पर प्रयोग हो सकता है ।

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