सचेतन, पंचतंत्र की कथा-55 :भोग नहीं सकने वाला धन
नमस्कार दोस्तों! आज हम आपका स्वागत करते हैं हमारे ‘सचेतन सत्र’ में। इस सत्र में हम जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा करेंगे।
“काम मेहनत से पूरे होते हैं, सिर्फ सोचने से नहीं। सोते हुए शेर के मुंह में हिरन खुद नहीं चला जाता है। बिना उद्यम के कोई मनोरथ पूरा नहीं होता है। ‘जो होना होगा वही होगा’, ऐसा हार मानने वाले कहते हैं। अगर मेहनत करने के बाद भी काम नहीं बनता, तो इसमें पराक्रमी व्यक्ति की कोई गलती नहीं है।
“एक बुनकर जिसका नाम सोमिलक था उसने सोचा की मुझे धनार्जन हेतु अवश्य परदेस जाना चाहिए।” इस प्रकार निश्चय करते हुए वह व्यक्ति वर्षमानपुर गया और वहां तीन वर्ष रहकर तीन सौ मुहरें अर्जित की। जब वह अपने घर लौटने के लिए निकला, तो आधे रास्ते में उसे जंगल में प्रवेश करना पड़ा। वहां, सूरज के डूबते ही, उसने जंगली जानवरों के भय से एक बरगद की लंबी शाखा पर चढ़कर विश्राम किया। आधी रात को, उसने दो विचित्र आकृति वाले पुरुषों को बातचीत करते सुना। एक ने कहा, “हे कर्ता, क्या तुम नहीं जानते कि सोमिलक के पास भोजन और वस्त्र के लिए आवश्यक धन से अधिक नहीं है? तो फिर तुमने उसे तीन सौ मुहरें क्यों दीं?” दूसरे ने उत्तर दिया, “हे कर्म, मुझे उद्यमी व्यक्तियों को धन देना चाहिए, पर इसका परिणाम तेरे हाथ में है।”
जागने पर बुनकर ने अपने मुहरों की गांठ टटोली और उसे खाली पाया। वह दुखी होकर सोचने लगा, “यह क्या? बड़े कष्ट से कमाया हुआ धन कहां चला गया? मेरा परिश्रम व्यर्थ हो गया। अब मैं इस गरीबी की हालत में अपनी पत्नी और मित्रों को कैसे मुंह दिखाऊंगा?”
फिर उसने फिर से उसी शहर में वापस जाकर एक वर्ष में पांच सौ मुहरें अर्जित किए और घर लौटने के लिए निकल पड़ा। जब वह जंगल में पहुंचा, तो फिर सूरज डूब गया। बिना विश्राम के, केवल अपने घर जाने की उत्कंठा से वह जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा। फिर से उसी प्रकार दो पुरुष उसकी आंखों के सामने आए और उनमें से एक ने कहा, “हे कर्ता! तूने पांच सौ मुहरें इसे किस लिए दीं? क्या तू नहीं जानता कि भोजन और वस्त्र से ज्यादा इसके भाग्य में नहीं है?” दूसरे ने कहा, “हे कर्म, उद्योगी व्यक्तियों को तो मुझे अवश्य देना चाहिए, पर उसका परिणाम तेरे अधीन है। इसलिए तू मुझे ताना क्यों मारता है?” सोमिलक ने जब अपनी गांठ देखी तो उसमें मुहरें नहीं थीं। वह अत्यंत दुखी होकर सोचने लगा, “मुझ जैसे निर्धन के जीने से क्या लाभ?”
इसलिए मैं बरगद के पेड़ के ऊपर फांसी लगाकर मर जाऊंगा।” इस तरह निश्चय करके घास की रस्सी बनाकर उसने उसे अपने गले में डाल दिया और पेड़ से बंधकर लटकने ही वाला था कि आकाशचारी एक पुरुष ने कहा, “अरे! अरे! सोमिलक, ऐसा मत कर। तेरे पास भोजन और वस्त्र से अधिक एक कौड़ी भी हो, यह मैं सहन नहीं कर सकता। इसलिए तू अपने घर जा। फिर भी मैं तेरे साहस से संतुष्ट हूं। इसलिए, मेरा दर्शन तेरे लिए व्यर्थ नहीं होगा। जैसी तेरी इच्छा हो वैसा वरदान मांग।” सोमिलक ने कहा, “अगर ऐसी बात है तो आप मुझे
खूब धन दीजिए।” उसने जवाब दिया, “अरे, बिना भोगे जाने वाले धन का तू क्या करेगा, क्योंकि भोजन और वस्त्र से अधिक की प्राप्ति तेरे भाग्य में नहीं है? कहा है कि, ‘इस लक्ष्मी से क्या किया जाय जो केवल घर की बहू की तरह है। वह मामूली वेश्या की तरह नहीं है जिसे पथिक भी भोगते हैं।'”
सौमिलक ने कहा, “धन भोग न सकने पर भी मुझे धन ही दीजिए। कहा है कि, ‘जिसके पास धन इकट्ठा होता है वह मनुष्य कंजूस हो अथवा अकुलीन, फिर भी इस संसार में आश्रित उसे घेरे रहते हैं।'”
एक सियार आपनी सियारन से कहता है की, “हे भद्रे! लम्बे और ढीले पड़े हुए ये दोनों मांस-पिंड गिरेंगे या नहीं इस आशा में मैं पंद्रह वर्ष देखता रहा।” पुरुष ने कहा, “यह कैसे?” सोमिलक कहने लगा, “किसी नगर में तीक्ष्णविषाण नाम का एक लम्बा-चौड़ा बैल रहता था। मदं की अधिकता से वह अपने झुंड को छोड़कर अपने सींगों से नदी के किनारे खोदता हुआ तथा पन्ने जैसी घास चरता हुआ वह जंगल में फिरने लगा। उसके पीछे-पीछे एक सियार चलने लगा जिसे उम्मीद थी कि शायद यह बैल कभी गिर पड़ेगा और उसे खाने को मिलेगा। लेकिन वर्षों बीत गए, और बैल नहीं गिरा।”
इस प्रकार के अनुभव से सोमिलक को समझ आया कि धन का महत्व और उसका संचय भी जीवन में अहम भूमिका निभा सकता है, भले ही वह तुरंत भोग न सके। उसे यह भी समझ आया कि व्यक्ति का भाग्य उसके परिश्रम और नियति पर निर्भर करता है।इस कथा के माध्यम से हमें यह संदेश मिलता है कि धन संचय करना और उसे समझदारी से उपयोग करना जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि किसी भी अन्य जीवन कौशल का होना।
आपके विचारों का स्वागत है। हमें उम्मीद है कि आप इस सत्र से कुछ नया सीखने को मिलेगा और आप अपने जीवन में इन विचारों को उतारने का प्रयास करेंगे।