सचेतन- बुद्धचरितम् 22- अष्टादश सर्ग- बुद्ध विहार का निर्माण
एक दिन कोशल देश के प्रसिद्ध और धर्मप्रिय राजा सुदत्त को पता चला कि भगवान बुद्ध (सुगत) अपने अनुयायियों के साथ किसी स्थान पर निवास कर रहे हैं। यह जानकर वे अत्यंत श्रद्धा और विनम्रता के साथ बुद्ध के दर्शन करने पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने भूमि पर दण्ड की तरह गिरकर बुद्ध को प्रणाम किया।
भगवान बुद्ध ने राजा को देखकर बहुत स्नेहपूर्वक कहा,
“हे राजन! तुम एक सच्चे साधक हो। इस संसार में जो बार-बार जन्म, वृद्धावस्था और मृत्यु के दुखों को देखकर मुक्ति की इच्छा करता है, वह नैष्ठिक (अंतिम सत्य की प्राप्ति करने वाला) कहलाता है। इसलिए अब तुम आत्मकल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ो।”
यह उसी तरह है जैसे कोई व्यक्ति चोरी करता है, लेकिन उसके अंदर के भाव हमेशा ऐसे होते हैं कि ‘मैं चोरी नहीं करना चाहता,’ तब उसे नेष्टिक अचोर्य(अंदर के भाव चोरी नहीं करने के हैं)। अंदर के भाव से ही आने वाले जीवन के नए कर्म बँधते हैं।
दूसरी ओर जब व्यक्ति लोगों को दान देता है तब उसके अंदर ऐसे भाव होते हैं कि ‘मुझे उन लोगों से इसका लाभ मिलेगा’ उसके दान का फल अगले जीवन में नहीं मिलेता।
सभी चीज़ें जो हम अपनी पाँच इंद्रियों से देखते हैं और अनुभव करते हैं उनका हमारे अगले जीवन के कर्म के खाते के लिए कोई महत्व नहीं है। हमारे अंदर के भावों की वजह से ही नए कर्म बँधते हैं। बाहर के कर्मों के साथ ही अंदर के भाव होते रहते हैं।
भगवान बुद्ध के इस उपदेश से राजा सुदत्त को बहुत संतोष और आत्मज्ञान की अनुभूति हुई। उन्होंने अत्यंत नम्रता से बुद्ध से कहा,
“हे भगवान! मैं चाहता हूँ कि आप मेरी राजधानी श्रावस्ती में आकर निवास करें। मैं वहाँ आपके और आपके भिक्षुओं के लिए एक विहार (मठ) बनवाना चाहता हूँ। कृपया मुझ पर कृपा करके वहाँ निवास कीजिए और हमें कृतार्थ कीजिए।”
राजा की यह भावना सुनकर भगवान बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा,
“जो व्यक्ति अन्न दान करता है, वह बल देता है। जो वस्त्र दान करता है, वह सौन्दर्य प्रदान करता है। लेकिन जो व्यक्ति साधुओं और मुनियों को निवास देता है, वह ऐसा माना जाता है मानो उसने सभी प्रकार के दान कर दिए हों।”
यह कहकर भगवान बुद्ध ने राजा को विहार निर्माण की अनुमति दे दी।
राजा सुदत्त यह स्वीकृति पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उपतिष्य नामक एक योग्य अनुयायी के साथ मिलकर श्रावस्ती लौटने की योजना बनाई।
श्रावस्ती में पहुँचने पर राजा ने जेतवन नामक एक सुंदर वन देखा, जो जेत नाम के किसी व्यक्ति का था। राजा ने जेत से निवेदन किया कि वह यह वन बुद्ध के विहार निर्माण हेतु उन्हें दे दे। शुरू में जेत इसे देने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन जब उसने बुद्ध के बारे में और विहार निर्माण की बात सुनी, तो वह सहमत हो गया।
राजा ने बड़ी मात्रा में धन देकर वह वन खरीद लिया और तुरंत उपतिष्य के मार्गदर्शन में वहाँ विहार निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया।जो विहार वहाँ बना, वह न केवल उस राजा की शक्ति और वैभव का प्रतीक था, बल्कि उसकी श्रद्धा, ज्ञान और धर्म के प्रति समर्पण की जीवंत कीर्ति बन गया।