सचेतन- बुद्धचरितम् 25- तेइसवाँ सर्ग बुद्ध और आम्रपाली
जब भगवान बुद्ध आम्रपाली के घर पधार गए, तो यह समाचार पूरे वैशाली नगर में फैल गया। लिच्छवि वंश के राजा और उनके साथी यह सुनकर बहुत उत्साहित हुए कि बुद्ध उनके नगर में हैं। वे सभी तुरंत बुद्ध के दर्शन करने आम्रपाली के निवास पर पहुँच गए।
आम्रपाली का जन्म और प्रारंभिक जीवन: कहा जाता है कि आम्रपाली का जन्म एक आम के वृक्ष के नीचे हुआ था, इसलिए उनका नाम ‘आम्रपाली’ पड़ा। वे बचपन से ही अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और कलावती थीं।
वैशाली की नगरवधू बनना: वैशाली के गणराज्य में एक परंपरा थी कि सर्वश्रेष्ठ कला, सौंदर्य और बुद्धि से युक्त युवती को ‘नगरवधू’ की उपाधि दी जाती थी। यह कोई अपमान नहीं बल्कि एक बहुत बड़ा सम्मान माना जाता था। आम्रपाली को यह उपाधि मिली और वे राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बन गईं।
राजा बिम्बिसार से मिलन: कुछ कथाओं में वर्णन है कि मगध नरेश बिम्बिसार आम्रपाली से मिलने आए थे और उनसे गहरी मित्रता हो गई थी। इस संबंध ने आम्रपाली के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया।
बुद्ध के प्रति गहरी श्रद्धा: बुद्ध से मिलने के बाद आम्रपाली ने वैभवपूर्ण जीवन छोड़ दिया। उन्होंने साध्वी बनकर संयम, सेवा और साधना का जीवन अपनाया। उनका यह परिवर्तन बौद्ध इतिहास में एक प्रेरक घटना के रूप में माना जाता है।
भिक्षुणी के रूप में योगदान: आम्रपाली ने भिक्षुणी संघ में शामिल होकर बुद्ध के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया। वे एक आदर्श भिक्षुणी बन गईं और आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ीं।
बुद्ध और आम्रपाली का संबंध कैसे जुड़ा: जब भगवान बुद्ध वैशाली आए थे, तो वहां के लोगों में उन्हें आमंत्रित करने की होड़ मच गई थी। आम्रपाली ने भी बुद्ध के प्रवचन सुने और गहरे प्रभावित हुईं। उन्होंने बुद्ध को अपने घर आमंत्रित किया, और बुद्ध ने बिना किसी भेदभाव के उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। यह उस समय के सामाजिक ढांचे के विपरीत एक साहसिक कदम था, क्योंकि गणिकाओं को सामान्यतः सम्मानित नहीं माना जाता था। आम्रपाली ने अपने घर पर बुद्ध और उनके भिक्षु संघ के लिए भोजन का आयोजन किया। भोजन के बाद, उन्होंने अपने भव्य उपवन (आम्रवन) को बुद्ध और उनके संघ को दान कर दिया। बाद में, आम्रपाली ने बुद्ध के उपदेशों को अपनाया और जीवन का त्याग कर भिक्षुणी बन गईं। उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली और मोक्ष के पथ पर अग्रसर हुईं।
बुद्ध और आम्रपाली के इस प्रसंग से यह सिखने को मिलता है कि बुद्ध का संदेश जाति, वर्ग, लिंग, और पेशे के भेदभाव से ऊपर था। उनके लिए हर जीव आत्मिक रूप से समान था और हर किसी को मोक्ष का अधिकार था।
सभी लिच्छवि शासकों ने बड़े आदर के साथ बुद्ध को प्रणाम किया और विनम्रता से भूमि पर बैठ गए। उनका राजा एक ऊँचे सिंहासन पर बैठा। बुद्ध उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सभी को जन्म, जरा (बुढ़ापा), और मृत्यु जैसे दुखों से छुटकारा पाने के लिए तत्वज्ञान रूपी दिव्य औषधि दी — अर्थात्, जीवन के सत्य का ज्ञान प्रदान किया।
बुद्ध का उपदेश सुनकर लिच्छवियों ने आग्रह किया कि वे बुद्ध को अपने घर ले जाना चाहते हैं, ताकि वे उनका आतिथ्य कर सकें। लेकिन बुद्ध ने नम्रता से मना करते हुए कहा, “मैं पहले ही आम्रपाली को वचन दे चुका हूँ, अतः मैं उसी का आतिथ्य स्वीकार करूंगा।” यह सुनकर लिच्छवि संतोषपूर्वक लौट गए।
बुद्ध ने वहाँ चातुर्मास (वर्षा ऋतु में स्थिर रहने की अवधि) पूर्ण की और उसके बाद वे पुनः वैशाली लौट आए। इस बार वे मर्कट नामक सरोवर के किनारे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए।
वहीं पर मार (माया और मृत्यु का प्रतीक) उनके पास आया। उसने बुद्ध से कहा, “हे मुनि! आपने नैरञ्जना नदी के तट पर कहा था कि जब तक आपके कार्य पूर्ण नहीं हो जाते, आप निर्वाण (मोक्ष) नहीं लेंगे। अब तो सब कुछ पूर्ण हो गया है, अब आपको निर्वाण लेना चाहिए।”
बुद्ध ने शांति से उत्तर दिया, “हाँ, अब समय आ गया है। आज से तीसरे महीने मैं निर्वाण लूंगा। तुम चिंता मत करो।” यह सुनकर मार चला गया।
इसके बाद भगवान बुद्ध ने गहरे ध्यान में जाकर अपने शरीर की वायु को चित्त (मन) में, चित्त को प्राण में और प्राण को योग से जोड़ दिया।
जैसे ही यह दिव्य योग प्रक्रिया पूरी हुई, पूरी पृथ्वी सहित पहाड़ों में भी कंपन हुआ। यह देख बुद्ध ने कहा,
“अब मैं उस आयु से पार हो गया हूँ जो भय और बंधन का कारण बनती है।”
यह सर्ग बुद्ध के जीवन के अंतिम चरण की ओर बढ़ने का संकेत देता है — जहाँ वे इस संसार को छोड़कर परम शांति की ओर अग्रसर हो रहे हैं।बुद्ध ने जन्म, बुढ़ापा (जरा), बीमारी (व्याधि) और मृत्यु (मरण) जैसे दुःखों से छुटकारा पाने के लिए जो तत्वज्ञान दिया, वह चार आर्य सत्य और आठfold मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) में समझाया गया है।