सचेतन 100: श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- आत्मज्ञान और ब्रह्मविद्या का साक्षात्कार कब से हो सकता है
पिछले अंक में चर्चा किया था की, एक बार दरिद्रता देवी की कृपा के कारण वामदेव ऋषि को आपद धर्म का पालन करना पड़ा और श्येन पक्षी से कहा था की है चाहो तो तुम भी यज्ञ-कुंड की अग्नि में कुत्ते की पके आंते से संतुष्ट हो सकते हो। वामदेव ने कहा मैंने अपने समस्त कर्म भी क्षुधा को अर्पित कर दिये हैं। आज जब सबसे उपेक्षित हूँ, तो हे पक्षी, तुम्हारा कृतज्ञ हूँ कि तुमने करुणा प्रदर्शित की।
आपद धर्म किन अन्य कथा में उषस्ति मुनि जब आपद धर्म के दौरान महावत ने जब यह बोला कि जूठे उड़द तो खा सकते हो लेकिन जूठा पानी क्यौं नहीं पी सकते हो। इस पर उषस्ति मुनि से कहा की – मैं आपके जूठे उड़द को नहीं खाता तो मर जाता। अब मुझ में कुछ जान आयी है। कहीं आसपास झरना होगा तो देखता हूँ। अब में जल ढूढ़ सकता हूँ तो में उसे कही और प्राप्त करूँगा। विचारकर भी झूठा जल ग्रहण करना, पूर्णतया गलत है जिसे आपद्धर्म नहीं कहा जा सकता। जूठे उड़द खाना यह आपद्धर्म है।
आपद धर्म से दो सीख मिलती है – पहला की कष्ट के दौरान भी शांत और अडिग होकर कृतज्ञ को नहीं भूलना चाहिए और किसी के करुणा प्रदर्शन पर उसका धन्यबाद प्रदर्शन नहीं भूलना चाहिए।
दूसरा आपद्धर्म को नियमित धर्म नहीं बनाना चाहिये।
वामदेव नामक योगी शिव जी के भक्त थे। उन्होंने अपने समस्त शरीर पर भस्म धारण कर रखी थी। एक बार एक व्यभिचारी पापी ब्रह्मराक्षस उन्हें खाने के लिए उनके पास पहुँचा। उसने ज्यों ही वामदेव को पकड़ा, उसके शरीर पर वामदेव के शरीर की भस्म लग गयी, अत: भस्म लग जाने से उसके पापों का शमन हो गया तथा उसे शिवलोक की प्राप्ति हो गयी। वामदेव के पूछने पर ब्रह्मराक्षस ने बताया कि वह पच्चीस जन्म पूर्व दुर्जन नामक राजा था, अनाचारों के कारण मरने के बाद वह रुधिर कूप मे डाल दिया गया। फिर चौबीस बार जन्म लेने के उपरांत वह ब्रह्मराक्षस बना।
ब्रह्मराक्षस ने वामदेव से इस पूर्वजन्म के रहस्य को जानना चाहा, वैसे तो –
वामदेव की जन्म की कथा में कहा गया है की वामदेव जब माँ के गर्भ में थे तभी से उन्हें अपने पूर्वजन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, माँ की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं और यह कष्टकर है, अत: माँ का पेट फाड़ कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की माँ को इसका आभास हो गया। अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की।
ऋग्वेद में वामदेव ऋषि ने स्वयं अपना परिचय दिया है, तदनुसार स्पष्ट होता है कि वामदेव को गर्भ में ही आत्मज्ञान और ब्रह्म विद्या का साक्षात्कार हो गया था। वामदेव को उन्हें उनकी माता के गर्भ में ही दर्शन हो गया था, इसलिये उन्होंने माता के उदर में ही कहा था-
कि ‘अहो! कितने आश्चर्य और आनन्द की बात है कि गर्भ में रहते-रहते ही मैंने इन अन्तःकरण और इन्द्रियरूप देवताओं के अनेक जन्मों का रहस्य भली-भाँति जान लिया अर्थात् मैं इस बात को जान गया कि ये जन्म आदि वास्तव में इन अन्तःकरण और इन्द्रियों के ही होते हैं, आत्मा के नहीं।