सचेतन- 12: प्रज्ञा (Prajña) – आत्मबोध या गूढ़ बुद्धि

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सचेतन- 12: प्रज्ञा (Prajña) – आत्मबोध या गूढ़ बुद्धि

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प्रज्ञा का अर्थ है – वह गहरी बुद्धि जो केवल सोचने या समझने तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मिक अनुभव से उत्पन्न होती है
यह वह स्थिति है जहाँ सत्य का प्रत्यक्ष बोध होता है — न केवल “जानना”, बल्कि “हो जाना”।

🧠 प्रज्ञा की विशेषताएँ:

  • यह मन और बुद्धि से परे, आत्मा की दृष्टि है।
  • इसमें न संशय होता है, न द्वंद्व — बस स्पष्ट अनुभव होता है।
  • यह सत्य को जीवन के हर क्षण में पहचानने की क्षमता है।
  • यह वह शक्ति है जो “मैं कौन हूँ?” के उत्तर तक पहुँचाती है।

📜 वेदांत में प्रज्ञा, उपनिषदों में कहा गया है: 

“प्राज्ञः स्वप्नान् न पश्यति” – प्राज्ञ अवस्था में कोई सपना नहीं होता, केवल शुद्ध आत्मबोध होता है।

यह वह चौथी अवस्था है – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और फिर – तुरीय, जहाँ प्रज्ञा प्रकट होती है।“तुरीय” का मतलब है — चौथी अवस्था, जो नींद, सपना और जागने की अवस्था से अलग होती है।

यह वह स्थिति है जब मन एकदम शांत होता है, कोई विचार नहीं चलता, कोई सपना नहीं आता,  कोई शब्द नहीं होता —  बस “मैं हूँ” का गहरा, शांत अनुभव होता है।

इस अवस्था में प्रज्ञा (सच्ची समझ और आत्मा की अनुभूति) अपने आप प्रकट होती है।  यह आत्मा का अनुभव है —  जहाँ सिर्फ शांति, आनंद और सत्य होता है।

उदाहरण:
जैसे कोई झील एकदम शांत हो जाए, तो उसका तल साफ़ दिखाई देता है।
वैसे ही जब मन शांत होता है, तो आत्मा की रोशनी दिखने लगती है।
यही तुरीय है — और वहीं प्रज्ञा प्रकट होती है

🌼 उदाहरण से समझें:

🔹 ज्ञान: “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ।”
🔹 विज्ञान: “मैंने इस बात पर विचार किया और निर्णय लिया।”
🔹 प्रज्ञा: “अब मैं इसे केवल जानता नहीं, अनुभव करता हूँ — मैं वही हूँ।”

यह वह स्थिति है, जहाँ “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) केवल वाक्य नहीं, अनुभव बन जाता है।

कहानी: दीपक और आकाश
(एक उपनिषद-आधारित प्रेरक कथा)

बहुत समय पहले एक जिज्ञासु साधक था, नाम था दीपक। वह वर्षों से वेद, उपनिषद और शास्त्र पढ़ रहा था। हर दिन नए प्रश्न लेकर अपने गुरु के पास आता, और हर उत्तर से उसकी जिज्ञासा और बढ़ जाती।

एक दिन उसने गुरु से पूछा,
“गुरुदेव, मैंने सब कुछ पढ़ा, सुना और सोचा। अब क्या करना है?”

गुरु मुस्कराए और बोले,
“बेटा, अब दीपक बुझा दो… और आकाश को निहारो। शब्दों का दीपक तुम्हें रास्ता दिखा सकता है, लेकिन सत्य का सूरज भीतर से ही उगेगा — वही प्रज्ञा है।”

दीपक चुप हो गया।  उस दिन से उसने पुस्तकें बंद कर दीं, प्रश्न पूछने बंद कर दिए। वह मौन में बैठा, केवल अपने मन को देखता रहा — जैसे झील के पानी को शांत होते देखना।

दिन बीते, फिर महीने।  धीरे-धीरे दीपक की आंखों की चमक बदल गई। अब उसमें कोई खोज नहीं थी — एक स्थिरता थी।

फिर एक दिन उसने गुरु से पूछा, “गुरुदेव, आपने कहा था ‘प्राज्ञः स्वप्नान् न पश्यति’। अब इसका अर्थ समझ में आया।”

गुरु ने मुस्कराकर कहा, “वत्स, जब मन शांत होता है, तब न स्वप्न आते हैं न विचार — केवल आत्मा का निःशब्द अनुभव होता है। यही तुरीय अवस्था है, यही प्राज्ञ, और यही मोक्ष।”

दीपक अब केवल जानता नहीं था, वह था

अब दीपक बुझ चुका था, और आकाश उसके भीतर जगमगा रहा था।

“स्वप्न से परे राजा”

बहुत समय पहले एक राजा था, जिसे हर रात अजीब-अजीब सपने आते थे।
कभी वह भिखारी बन जाता, कभी डरावनी गुफाओं में होता।
राजा सुबह उठता और परेशान रहता —
“मैं इतना धनवान होकर भी हर रात दुख क्यों पाता हूँ?”

एक दिन एक साधु उसके दरबार में आए।
राजा ने अपना दुख बताया। साधु ने कहा —
“राजन्, जब तुम सोते हो, तुम्हारा मन जागता है और वही तुम्हारे स्वप्न बनाता है। पर अगर मन भी सो जाए, तो कोई सपना नहीं आता — और वही सच्चा विश्राम है।”

राजा ने पूछा — “फिर मैं क्या करूँ?” साधु बोले —  “अपने मन को शांत करो, तब तुम ‘प्राज्ञ’ बन जाओगे — वह जो स्वप्नों से परे है।”उस रात राजा ने ध्यान किया, और पहली बार बिना स्वप्न के गहरी नींद में सोया।
सुबह वह मुस्कराया —
“अब मैं जानता हूँ, सच्चा सुख बाहर नहीं, भीतर की शांति में है।”

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