सचेतन :13. श्रीशिवपुराण- विद्येश्वर संहिता – भगवान शंकर का वर्णन- ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’-2
सचेतन :13. श्रीशिवपुराण- विद्येश्वर संहिता – भगवान शंकर का वर्णन- ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’-2
Sachetan: Method of listening to Shiva Purana
किसी भी चीज़ के निर्माण से फले उसका ध्यान उसकी परिकल्पना आवश्यक है, चाहे श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में ब्रह्मा सृष्टि रचना के ज्ञान के लिए परब्रह्म का ध्यान किया था। तब भगवान शंकर ने उन्हें अपने पहले अवतार ‘सद्योजात रूप’ में दर्शन दिए। इसमें वे एक श्वेत और लोहित वर्ण वाले शिखाधारी कुमार के रूप में प्रकट हुए और ‘सद्योजात मन्त्र’ देकर ब्रह्माजी को सृष्टि रचना के योग्य बनाया।
कहते हैं की भगवान शिव के पांच मुख हैं अवतार के रूप में हैं तभी से वे ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहलाने लगे।
भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात है। यह बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं।
उत्तर दिशा का मुख वामदेव है। वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला।
दक्षिण मुख अघोर है। अघोर का अर्थ है कि निन्दित कर्म करने वाला। निन्दित कर्म करने वाला भी भगवान शिव की कृपा से निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता है।
भगवान शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष है। तत्पुरुष का अर्थ है अपने आत्मा में स्थित रहना।
शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं—सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह—मेरे ये पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं। ये पांच ही मेरे जगत- संबंधी कार्य है, जो नित्यसिद्ध है।
संसार की रचना का जो आरम्भ हैं, उसी को सर्ग या ‘सृष्टि’ कहते हैं।
मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी ‘स्थिति’ है।
उसका विनाश ही ‘संहार’ है।
प्राणों के उत्क्रमण को ‘तिरोभाव’ (अदृश्य होने का भाव या अवस्था) कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ (कृपा, प्रसाद, ईश्वरीय कृपा) है। इस प्रकार मेरे पांच कर्म हैं।
शिवजी कहते हैं – सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं। पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष के लिए है। वह सदा मुझ में ही अचल भाव से स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पांचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित हैं। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती हैं। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहित करता है।
व्यासजी कहते हैं—एक बार जो धर्मका महान् क्षेत्र है और जहाँ गंगा-यमुनाका संगम हुआ है, उस परम पुण्यमय प्रयागमें, जो ब्रह्मलोकका मार्ग है, सत्यव्रतमें तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी महाभाग महात्मा मुनियोंने एक विशाल ज्ञानयज्ञका आयोजन किया। उस ज्ञानयज्ञ- का समाचार सुनकर पौराणिकशिरोमणि व्यासशिष्य महामुनि सूतजी वहाँ मुनियोंका दर्शन करनेके लिये आये। सूतजीको आते देख वे सब मुनि उस समय हर्षसे खिल उठे और अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे उन्होंने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् उन प्रसन्न महात्माओंने उनकी विधिवत् स्तुति करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा-
‘सर्वज्ञ विद्वान् रोमहर्षणजी ! आपका भाग्य बड़ा भारी है, इसीसे आपने व्यासजी के मुखसे अपनी प्रसन्नताके लिये ही सम्पूर्ण पुराण विद्या प्राप्त की। इसलिये आप आश्चर्यस्वरूप कथाओंके भण्डार हैं- ठीक उसी तरह, जैसे रत्नाकर समुद्र बड़े-बड़े सारभूत रत्नोंका आगार है।
तीनों लोकों में भूत, वर्तमान और भविष्य तथा और भी जो कोई वस्तु है, वह आपसे अज्ञात नहीं है | आप हमारे सौभाग्यसे इस यज्ञका दर्शन करनेके लिये यहाँ पधार गये हैं और इसी व्यास से हमारा कुछ कल्याण करनेवाले हैं; क्योंकि आपका आगमन निरर्थक नहीं हो सकता। हमने पहले भी आपसे शुभाशुभ तत्त्वका पूरा-पूरा वर्णन सुना है; किंतु उससे तृप्ति नहीं होती, हमें उसे सुननेकी बारंबार इच्छा होती है।