सचेतन- 30: तैत्तिरीय उपनिषद् – “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व — तपो ब्रह्मेति”

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सचेतन- 30: तैत्तिरीय उपनिषद् – “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व — तपो ब्रह्मेति”

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अर्थ — “तप के द्वारा ब्रह्म को जानने की इच्छा करो — तप ही ब्रह्म है।”

तप का यहाँ अर्थ है — आत्म-संयम (Self-control), सत्यनिष्ठा (Truthfulness), शुद्ध आचरण (Pure conduct), निरंतर साधना (Continuous spiritual discipline) ये आत्म-विकास और आध्यात्मिक प्रगति के चार स्तंभ माने जाते हैं:

  1. आत्म-संयम (Self-control)
    अपनी इंद्रियों, भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण रखना।
    यह व्यक्ति को संतुलित, शांत और स्थिर बनाता है।
  2. सत्यनिष्ठा (Truthfulness)
    विचार, वचन और कर्म में सत्य का पालन करना।
    यह आत्मविश्वास और विश्वास का आधार है।
  3. शुद्ध आचरण (Pure conduct)
    पवित्र विचारों, ईमानदार कर्मों और नैतिक जीवन का अभ्यास।
    यह व्यक्ति को भीतर और बाहर दोनों से निर्मल बनाता है।
  4. निरंतर साधना (Continuous spiritual discipline)
    प्रतिदिन अपने भीतर की चेतना से जुड़ने का प्रयास करना।
    यह साधक को आत्म-बोध और ईश्वर-बोध के मार्ग पर अग्रसर करता है।

इन चारों का समन्वय ही “सच्चे जीवन का धर्म” है —
जहाँ मन, वचन और कर्म एक रूप होकर आनंद और शांति की ओर ले जाते हैं। 🌿

ब्रह्मानंदवल्ली का संदेश

  1. तप के माध्यम से ब्रह्मज्ञान — केवल बौद्धिक अध्ययन से नहीं, बल्कि साधना, संयम और आचार-शुद्धि से ब्रह्म का अनुभव होता है।
  2. आनंद का क्रम — यह वल्ली आनंद के विभिन्न स्तरों का वर्णन करती है:
    • लौकिक आनंद (मानव, दैव, गांधर्व, इन्द्र आदि के आनंद)
    • परम आनंद — ब्रह्मानंद, जो अनंत, अपरिवर्तनीय और स्थायी है।
  3. सत्य और आत्मसंयम — ब्रह्मानंद तक पहुँचने के लिए सत्य को आधार और इंद्रिय-निग्रह को साधन माना गया है।

ब्रह्म ही आनंद — उपनिषद बताता है कि ब्रह्म और आनंद अलग नहीं हैं — “आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात्” — आनंद ही ब्रह्म है।

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