सचेतन :31. श्री शिव पुराण- पांच कृतियों में सृष्टि का प्रतिपादन-2
सचेतन :31. श्री शिव पुराण- पांच कृतियों में सृष्टि का प्रतिपादन-2
Sachetan: Rendering of creation in five works
कृति और विकृति हमारे व्यवहार तथा वास्तविक को पहचान को संदर्भित कृति है। हम ख़ुद की जिम्मेदारियों तथा अपनी देखभाल करने में समर्थ या असमर्थ हो जाते हैं। यह हमारे कृति और मनोस्थिति दोनों का प्रभाव है। कभी भी ना हम अपने कर्म या कृति को विकार युक्त करें या फिर ना ही मनोविकृति से मन की स्थिति टूटने दें।
जब भी हम कृति या विकृति के बारे में सोचते हैं तो व्यक्ति की सभी पांच इंद्रियों, उनके व्यवहार और उनकी भावनाओं को प्रभावित कर सकती है।यह एक व्यक्ति का अनुभव हो सकते है जो न केवल खुद को बल्कि आसपास के लोगों को भी प्रभावित करता है।
एक बार ब्रह्मा और विष्णु ने शिव जी से पूछा प्रभो सृष्टि आदि पांच कृतियों के लक्षण क्या है यह हम दोनों को बताइए। कृति का अर्थ है हमारे द्वारा किया गया कार्य, या ऐसी क्रिया, निर्मिति जो बहुत प्रशंसनीय है। ऐसे पांच कार्य जिससे आप अपने कर्तव्यों को और संस्कार को सीख सकते हैं। संस्कार यानी शुद्धीकरण। अलग-अलग परिवारों में समुदायों में संस्कार की भिन्नता होती है।
भगवान शिव बोले मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूं ब्रह्मा और अच्युत ! ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ – यह पांच ही मेरे जगत संबंधी कार्य है जो नित्य सिद्ध है संस्कार संसार की रचना का जो आरम्भ है, उसको सर्ग या ‘सृष्टि’ कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टिका सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति’ है। उसका विनाश ही ‘संहार’ है। प्राणोंके उत्क्रमणको ‘तिरोभाव’ कहते हैं। इन छुटकारा मिल ही मेरा ‘अनुग्रह’ है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं। पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्षका हेतु है। वह सदा ही अचल भाव से स्थिर रहता है।
सामान्यतः जगत् में सृष्टि शब्द का अर्थ होता है किसी नवीन वस्तु की निर्मिति। सृष्टि का अभिप्राय अधिक सूक्ष्म है तथा अर्थ उसके वास्तविक स्वभाव का परिचायक है। सृष्टि का अर्थ है अव्यक्त नाम रूप और गुणों को व्यक्त करना। कोई भी व्यक्ति वर्तमान में जिस स्थिति में रहता दिखाई देता है वह उसके असंख्य बीते हुये दिनों का परिणाम है। भूतकाल के विचार भावना तथा कर्मों के अनुसार उनका वर्तमान होता है। मनुष्य के बौद्धिक विचार एवं जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कर्म अपने संस्कार उसके अन्तःकरण में छोड़ जाते हैं। यही संस्कार उसके भविष्य के निर्माता और नियामक होते हैं।
अगर विचार करें तो मेढक से मेढक की मनुष्य से मनुष्य की तथा आम्रफल के बीज से आम्र की ही उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार शुभ विचारों से सजातीय शुभ विचारों की ही धारा मन में प्रवाहित होगी और उसमें उत्तरोत्तर बृद्धि होती जायेगी। मन में अंकित इन विचारों के संस्कार इन्द्रियों के लिए अव्यक्त रहते हैं और प्रायः मन बुद्धि भी उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती। ये अव्यक्त संस्कार ही विचार शब्द तथा कर्मों के रूप में व्यक्त होते हैं। संस्कारों का गुणधर्म कर्मों में भी व्यक्त होता है।उदाहरणार्थ किसी विश्रामगृह में चार व्यक्ति चिकित्सक वकील सन्त और डाकू सो रहे हों तब उस स्थिति में देह की दृष्टि से सबमें ताप श्वास रक्त मांस अस्थि आदि एक समान होते हैं। वहाँ डाक्टर और वकील या सन्त और डाकू का भेद स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता को हम इन्द्रियों से देख नहीं पाते तथापि वह प्रत्येक में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है उनसे उसका अभाव नहीं हो जाता है।उन लोगों के अव्यक्त स्वभाव क्षमता और प्रवृत्तियाँ उनके जागने पर ही व्यक्त होती हैं। विश्रामगृह को छोड़ने पर सभी अपनी अपनी प्रवत्ति के अनुसार कार्यरत हो जायेंगे।