सचेतन :36. श्री शिव पुराण- एक ‘कर्म योगी’ के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उन्हें पाप कर्मों से दूर रहते हैं।
सचेतन :36. श्री शिव पुराण- एक ‘कर्म योगी’ के संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म उन्हें पाप कर्मों से दूर रहते हैं।
Sachetan: The Sanchita Karma and Prarabdha Karma of a ‘Karma Yogi’ stay him away from sinful deeds.
सूक्ष्म पदार्थों का सकल पदार्थों में परिवर्तन। श्रृष्टि से पहले सब कुछ निराकार, नाम विहीन होता है। जीवात्माओं को देह और इन्द्रियाँ प्रदान करना, जीवात्मा के ज्ञान (धर्मभूत ज्ञान) का विस्तार करना।
उदाहरण: एक मिट्टी के बर्तन के श्रृष्टि में तीन कारणों का होना आवश्यक है: मिट्टी: मिट्टी के स्वरुप परिवर्तन से ही बर्तन का निर्माण होता है। कुम्हार: अब, खुद के द्वारा मिट्टी एक बर्तन में बदल नहीं सकता। कुम्हार मिट्टी को एक बर्तन में बदलता है तो, बनाने में बर्तन, कुम्हार भी मिट्टी की तरह कारण है। कुम्हार बर्तन के श्रृष्टि में निमित्त कारण है। वह श्रृष्टि की प्रक्रिया का नियंत्रक होता है। अब, केवल मिट्टी के साथ, कुम्हार मटका नहीं बना सकता है, उसे लकड़ी के पहिये चाक और कुछ अन्य की आवश्यकता होती है। पहिया बर्तन के श्रृष्टि में सहायक है। इसे सहकारी कारण कहते हैं।
जिस प्रकार जल उपज का पोषण करता है उसी प्रकार करता है, उसी प्रकार भगवान अपने जीवात्माओं का पोषण-पालन करते हैं: भगवान हंस अवतार लेकर ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान देते हैं और हयग्रीव अवतार लेकर वेदों की रक्षा करते हैं।
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मनु और ऋषियों के द्वारा शास्त्र को स्थापित करते हैं।
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स्वयं मृत्यु-लोक में अवतार लेकर जीवात्माओं को प्रशिक्षित करने हेतु विभिन्न लीलाएं करते हैं और गीता आदि शास्त्रों का उपदेश देते हैं।
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धर्म और सत्य के मार्ग पर जीवात्माओं का मार्गदर्शन करने हेतु सभी प्राणियों और काल में अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में रहते हैं।
भगवान के लिये श्रृष्टि, स्थिति और संहार लीला मात्र है पर जीवात्मा के लिये यह कर्म-बंधन से मुक्त होने का मौका है। हम सभी अनादि काल से मृत्यु-लोक में अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोग रहे हैं। शुभ कर्मों के फलस्वरूप हमें सुख की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दुःख की। इस तरह से शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप), दोनों ही प्रकार के कर्म हमें संसार में बंधने वाले हैं। हमारे कर्मों का अनंत कोष ‘संचित कर्म’ कहलाता है। उस संचित का वो भाग जो हमें इस जन्म में भोगना होता है, वो ‘प्रारब्ध कर्म’ कहलाता है। एक ‘कर्म योगी’ हमेशा पाप-कर्मों से दूर रहता है और पुण्य कर्मों को भगवान की सेवा के रूप में करता है एवं उसका फल भगवान को समर्पित करके ही उपभोग करता है।
अगर हम सृष्टि का उद्देश्य न समझें तो सृष्टि निरर्थक हो जायेगा पर निर्हेतुक कृपा के स्वामी भगवान प्रलय के पश्चात फिर से सृष्टि करते हैं। यह प्रक्रिया अनंत काल से जारी है।
सृष्टि और प्रलय, दोनों ही अवस्था में हम भगवान के अभिन्न अंश हैं।
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