सचेतन :47. श्री शिव पुराण- कैसे करें शिवलिंग की स्थापना?
सचेतन :47. श्री शिव पुराण- कैसे करें शिवलिंग की स्थापना?
Sachetan:How to establish Shivling?
शिव जी कहते हैं की मेरा या मेरे लिंगका दर्शन प्रभातकालमें ही – प्रातः और संगव (मध्याह्नके पूर्व ) कालमें करना चाहिये। मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथ व्यापिनी अथवा प्रदोष व्यापिनी लेनी चाहिये।
निशीथ काल: रात्रि का आठवां मुहूर्त निशीथ काल कहलाता है।
प्रदोष काल: सूर्यास्त के बाद तीन मुहूर्त का समय प्रदोष काल कहलाता है।
अब हमलोग शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन तथा शिव पद की प्राप्ति करने वाले सतकर्मों का विवेचन करेंगे।
ऋषियों ने पूछा- सूत जी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिए? उसका लक्षण क्या है? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिए किस देश काल में करनी चाहिए और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिए श्रुति जी ने कहा महर्षि मैं तुम लोगों के लिए इस विषय का वर्णन करता हूं। ध्यान देकर सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तट पर अपनी रूचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए जहां नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य से जलमय द्रव्य से अथवा तैजस पदार्थ से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा पूरा फल प्राप्त होता है। संपूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग कि यदि पूजा की जाए तो वह तत्काल पूजा का फल देने वाला होता है। यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिए छोटा सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचलप्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना जाता है। उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिए। शिवलिंग का पीठ मंडला कार (गोल) चौकोर कोमा त्रिकोण अथवा खाट के पाए की भांति ऊपर तथा नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिए। ऐसा लिंग पीठ महान फल देने वाला होता है पहले मिट्टी से प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिए,यही स्थावर अचल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग की विशेष बात है चल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपदान होना चाहिए, किंतु बाढ़ लिंग के लिए यह नियम नहीं है। लिंग की लंबाई निर्माण करता या स्थापना करने वाले यजमान के 12 अंगुल के बराबर होनी चाहिए ऐसे ही शिवलिंग को उत्तम कहा गया है। इसमें कम लंबाई हो तो फल में कमी आ जाती है अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं है। चरलिंग में भी वैसा ही नियम है। उसकी लंबाई कम से कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिए। उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है। किंतु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है यजमान को चाहिए कि वह पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाए जो देव गणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका गर्भग्रह बहुत ही सुंदर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो। उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हो। जहां शिवलिंग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा, गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मंत्रों के साथ छोड़ें।
सद्योजात आदि पांच वैदिक मंत्रों द्वारा शिवलिंग का 5 स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में भविष्य की अनेक आहुतियां दें और परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरु स्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई बंधुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करें।
याचकों को जड़ ( सुवर्ण, गृह एवं भू संपत्ति) तथा चेतन ( गौ आदि) वैभव प्रदान करें। स्थावर जंगम सभी जीवो को यत्न पूर्वक संतुष्ट करके एक गड्ढे में स्वर्ण तथा 9 प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करें। तत्पश्चात नादघोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ ) का उच्चारण करके उक्त गड्ढे में शिवलिंग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करें। इस प्रकार पीठयुक्त लिंगकी स्थापना करके उसे नित्य-लेप (दीर्घकालतक टिके रहनेवाले मसाले) से जोड़कर स्थिर करे। इसी प्रकार वहाँ परम सुन्दर वेर (मूर्ति) की भी स्थापना करनी चाहिये। सारांश यह कि भूमि-संस्कार आदिकी सारी विधि जैसी लिंग प्रतिष्ठा के लिये कही गयी है, वैसी ही वेर (मूर्ति) – प्रतिष्ठाके लिये भी समझनी चाहिये । अन्तर इतना ही है कि लिंग- प्रतिष्ठाके लिये प्रणवमन्त्रके उच्चारणका विधान है, परन्तु वेर की प्रतिष्ठा पंचाक्षर- मन्त्रसे करनी चाहिये जहाँ लिंगकी प्रतिष्ठा हुई है, वहाँ भी उत्सवके लिये बाहर सवारी निकालने आदिके निमित्त वेर (मूर्ति)-को रखना आवश्यक है।