सचेतन :64 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: शब्द ब्रह्ममय से ब्रह्मांड की उत्पत्ति
सचेतन :64 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: शब्द ब्रह्ममय से ब्रह्मांड की उत्पत्ति
#RudraSamhita
ब्रह्माजी बोले ;– मुनिश्रेष्ठ नारद! को ‘ॐ’ नाद स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने के बाद कहा की आप ध्वनि को सिर्फ सुन ही नहीं सकते, देख भी सकते हैं। उसे महसूस करने का एक तरीका होता है।
ब्रह्माजी बोले ;– मुनिश्रेष्ठ नारद! हमारी उपासना के बाद से प्रसन्न हो गए। उस समय वहां अग्नि-स्तम्भ से ‘ॐ’ नाद स्पष्ट रूप से सुनाई दे रहा था। लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया जो अ आदि वर्ण हैं। ये सभी वर्ण-ध्वनियों में व्याप्त हैं। उत्तर भाग में उकार का अनुभव किया जो प्राण वायु के साथ अनुभव हुआ। मध्य भाग में मकार का अनुभव किया। इसे पंचमकार शब्द भी कहते है जिसका अर्थ ‘म से आरम्भ होने वाली पाँच वस्तुएँ’ है, ये पाँच वस्तुएँ जिसके साधना से मद्य यानी अमृत का पैदा होना, दूसरा मांस- शरीर पर नियंत्रण, मत्स्य यानी प्राणायाम द्वारा गति पर नियंत्रण, मुद्रा यानी दैनिक जीवन में हमारा व्यवहार विचार अर्थात् सत्संग और पाँचवा मैथुन यानी ऊर्जावान होकर कुण्डलिनी को सहस्रचक्र तक ले जाना और अंत में ‘ॐ’ नाद का साक्षात दर्शन एवं अनुभव किया।
दक्षिण भाग में प्रकट हुए आकार का सूर्य मण्डल के समान तेजोमय रूप देखकर, जब उन्होंने उत्तर भाग में देखा तो वह अग्नि के समान दीप्तिशाली दिखाई दिया। तत्पश्चात ‘ॐ’ को देखा, जो सूर्य और चंद्रमण्डल की भांति स्थित थे और जिनके शुरू एवं अंत का कुछ पता नहीं था तथा सत्य आनंद और अमृत स्वरूप परब्रह्म परायण ही दृष्टिगोचर हो रहा था।
परंतु यह कहां से प्रकट हुआ है? इस अग्नि स्तंभ की उत्पत्ति कहां से हुई है? यह श्रीहरि सोचने लगे तथा इसकी परीक्षा लेने के संबंध में विचार करने लगे। तब श्रीहरि ने भगवान शिव का चिंतन करते हुए वेद और शब्द के आवेश से युक्त हो अनुपम अग्नि स्तंभ के नीचे जाने का निर्णय लिया।