सचेतन :65 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: रूद्र और ऋषि कल्याण कारक है।

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सचेतन :65 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: रूद्र और ऋषि कल्याण कारक है।

#RudraSamhita

माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है. हमारे  और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है. यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है.

सर्वत्र व्याप्त होने के कारण इस ध्वनि (ॐ) को ईश्वर (प्रणव) की संज्ञा दी गई है.

ब्रह्माजी जब महर्षि नारद जी को अग्नि-स्तम्भ से निकल रहे ‘ॐ’ नाद का साक्षात दर्शन एवं अनुभव के बारे में बता रहे थे तो वे बोले जब मैं और विष्णुजी विश्वात्मा शिव का चिंतन कर रहे थे, तभी वहां एक ऋषि प्रकट हुए। उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर विष्णु ने जाना कि इस शब्द ब्रह्ममय शरीर वाले परम लिंग के रूप में साक्षात परब्रह्म स्वरूप महादेव जी प्रकट हुए हैं। ये चिंता रहित रुद्र हैं। भगवान शिव को रूद्र नाम से जाता है रुद्र का अर्थ है रुत दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला अतः भगवान शिव का स्वरूप कल्याण कारक है।

ऋषि अर्थात “दृष्टा” भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है। श्रुति का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ, यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों के द्वारा सुनकर जगत में फैलाई गई थी। ऋषि वे विशिष्ट व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया। इसीलिये कहा गया – ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः। अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं नकि बनानेवाले। 

अर्थात् बनानेवाला तो केवल एक परमात्मा ही है। इसीलिये किसी भी मंत्र के जप से पूर्व उसका विनियोग अवश्य बोला जाता है। विनियोग का अर्थ है की किसी फल के उद्देश्य से या किसी विषय के प्रयोग हेतु किसी वैदिक कृत्य में मंत्र का प्रयोग करना।

उदाहरणार्थ अस्य श्री ‘ऊँ’कार स्वरूप परमात्मा गायत्री छंदः परमात्मा ऋषिः अन्तर्यामी देवता अन्तर्यामी प्रीत्यर्थे आत्मज्ञान प्राप्त्यार्थे जपे विनियोगः। ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ‘ऋष’ है जिसका अर्थ ‘देखना’ या ‘दर्शन शक्ति’ होता है। ऋषि के प्रकाशित कृतियों को आर्ष कहते हैं जो इसी मूल से बना है, इसके अतिरिक्त दृष्टि (नज़र) जैसे शब्द भी इसी मूल से हैं। सप्तर्षि आकाश में हैं और हमारे कपाल में भी।

ऋषि आकाश, अन्तरिक्ष और शरीर तीनों में होते हैं।

ब्रह्माजी और विष्णुजी जब विश्वात्मा शिव का चिंतन कर इह थे तो वहां प्रकट हुए एक ऋषि श्रुति ग्रंथों को दर्शन करते हुए खा की वह एक सत्य परम कारण, आनंद, अकृत, परात्पर और परमब्रह्म है। प्रणव के पहले अक्षर ‘अकार’ से जगत के बीजभूत अर्थात ब्रह्माजी का बोध होता है। दूसरे अक्षर ‘उकार’ से सभी के कारण श्रीहरि विष्णु का बोध होता है। तीसरा अक्षर ‘मकार’ से भगवान शिव का ज्ञान होता है। 

‘अकार’ सृष्टिकर्ता, ‘उकार’ मोह में डालने वाला और ‘मकार’ नित्य अनुग्रह यानी ईश्वरीय कृपा करने वाला है। 

‘मकार’ अर्थात भगवान शिव बीजी अर्थात बीज के स्वामी हैं, तो ‘अकार’ अर्थात ब्रह्माजी बीज हैं। ‘उकार’ अर्थात विष्णुजी योनि हैं। योनि का अर्थ प्रकटीकरण या origin होता है।मनुष्य योनि , पशु योनि, वृक्ष योनि, पुरुष योनि, स्त्री योनि।

महेश्वर बीजी, बीज और योनि हैं। इन सभी को नाद कहा गया है। बीजी अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करते हैं। बीजी भगवान शिव के लिंग से ‘उकार’ रूप योनि में स्थापित होकर चारों तरफ ऊपर की ओर बढ़ने लगा। वह दिव्य अण्ड कई वर्षों तक जल में रहा।

माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है. हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है. यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है.

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