सचेतन- 7: आत्मा – चेतना का आधार
🕉️ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म को जानना:
- “अहं ब्रह्मास्मि” – मैं ब्रह्म हूँ
जब व्यक्ति अनुभव करता है कि उसकी आत्मा ही ब्रह्म है — यही ब्रह्म-ज्ञान है। - “यः वेद निहितं गुहायां” — जो ब्रह्म हृदय की गुफा (आत्मा) में स्थित है, उसे जो जानता है, वही मुक्त होता है।
- “नेति नेति” (Neti Neti) — ब्रह्म को शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता; उसे केवल अनुभव किया जा सकता है — “यह नहीं, वह नहीं”, हर सीमा से परे।
🌟 ब्रह्म को जानने का परिणाम:
- मुक्ति (मोक्ष) — जन्म-मरण से मुक्ति
- शांति और आनंद — स्थायी, अचल, अपरिवर्तनीय आनंद
- अहम् का विलय — अहंकार मिट जाता है, केवल चेतना बचती है
📖 एक सरल उदाहरण:
जैसे समुद्र की लहरें समुद्र से अलग नहीं होतीं, वैसे ही आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है।
ब्रह्म को जानना = यह जानना कि मैं लहर नहीं, मैं स्वयं समुद्र हूँ।
1. अहं ब्रह्मास्मि (Aham Brahmasmi) – मैं ब्रह्म हूँ
— बृहदारण्यक उपनिषद
यह उपनिषदिक महावाक्य कहता है कि व्यक्ति की चेतना (आत्मा) और ब्रह्म (सर्वोच्च चेतना) एक ही हैं। यानी हमारी आत्मचेतना ही ब्रह्म चेतना है।
यह उपनिषदिक महावाक्य बताता है कि व्यक्ति की आत्मचेतना और ब्रह्म (सर्वोच्च चेतना) में कोई भेद नहीं है — दोनों एक ही हैं। यानी, जो चेतना हमारे भीतर है, वही ब्रह्म की चेतना है।
इस महावाक्य का तात्पर्य है कि हमारी आत्मा ही ब्रह्म है — आत्मचेतना और ब्रह्मचेतना में कोई अंतर नहीं है।
यह दर्शाता है कि हर जीव में जो चेतना है, वह उसी परम चेतना (ब्रह्म) का अंश नहीं, बल्कि उसी का पूर्ण रूप है।
उपनिषद का यह वाक्य कहता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ का अर्थ है — हमारी चेतना, ब्रह्म की चेतना से अलग नहीं, बल्कि उसी का प्रतिबिंब है।
2. प्रज्ञानं ब्रह्म (Prajñānam Brahma) – चेतना ही ब्रह्म है
— ऐतरेय उपनिषद
यह कहता है कि चेतना ही सर्वोच्च वास्तविकता है। सम्पूर्ण सृष्टि उसी चेतना से प्रकट होती है और उसी में विलीन होती है।
“प्रज्ञानं ब्रह्म”, जिसका अर्थ है – चेतना ही ब्रह्म (परम सत्य) है। यही चेतना सृष्टि की रचना करती है, उसे चलाती है और अंत में सब कुछ उसी में लीन हो जाता है।
🧘♂️ भावार्थ:
हमारे भीतर की चेतना केवल निजी अनुभव नहीं है, वह सम्पूर्ण ब्रह्मांड की मूल शक्ति है।
3. तत् त्वम् असि (Tat Tvam Asi) – तू वही है
— छांदोग्य उपनिषद
यह शिष्य से कहता है कि जो ब्रह्म (सर्व-व्यापक चेतना) है, वही तुम हो। यानी आत्मा और ब्रह्म में भेद नहीं। गुरु शिष्य से कहता है कि तुम सीमित शरीर या मन नहीं हो, बल्कि वही परम चेतना हो जो संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।
“तत् त्वम् असि” (Tat Tvam Asi) कहा गया है, जिसका अर्थ है — “तू वही है”। इसका संदेश यह है कि जो ब्रह्म है — वह सर्वव्यापक, शुद्ध चेतना — वही वास्तव में तुम हो। यानी आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही सत्य के दो रूप हैं।
4. आत्मा – चेतना का आधार:
उपनिषदों में आत्मा को “सत्-चित्-आनंद” स्वरूप कहा गया है, जिसका अर्थ है — सत्य (Sat), चेतना (Chit), और आनंद (Ananda)। यह आत्मा केवल शरीर के भीतर की चेतना नहीं है, बल्कि यह उसी ब्रह्मांडीय चेतना (ब्रह्म) से जुड़ी हुई है। आत्मा, व्यक्ति को केवल जीवित ही नहीं बनाती, बल्कि उसे ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव भी कराती है।
हमारी आत्मा एक सीमित सत्ता नहीं है; वह उसी अनंत चेतना का हिस्सा है जो संपूर्ण सृष्टि में विद्यमान है।
🌿 वेदों में चेतना का स्वरूप:
- ऋग्वेद में ‘पुरुष सूक्त’ जैसे मंत्र चेतना को सृष्टि की उत्पत्ति का स्रोत बताते हैं।
- वेदों में चेतना को ‘चित्’, ‘मनस्’, ‘विज्ञान’, और ‘प्रज्ञा’ जैसे शब्दों में समझाया गया है।
🧘♂️ योग और ध्यान में चेतना:
उपनिषद चेतना को ध्यान और आत्मबोध के माध्यम से जानने का मार्ग भी दिखाते हैं।
योग का अंतिम उद्देश्य भी समाधि है – जहाँ व्यक्तिगत चेतना ब्रह्म चेतना में लीन हो जाती है।वेद और उपनिषद चेतना को केवल मस्तिष्क की क्रिया नहीं मानते, बल्कि उसे आध्यात्मिक चेतना, ब्रह्म के साथ एकत्व, और संपूर्ण अस्तित्व की आत्मा मानते हैं।