सचेतन :76 श्री शिव पुराण- मनुष्य के अंदर के छह सबसे बड़े शत्रु
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हमारे जीवन का सत्य यह है की जब तक मनुष्य भक्तिभाव से सनातन यानी सत्य की ओर नहीं झुक जाता है, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रु जनित पीड़ा, ये चारों प्रकार के पाप दुखी करते हैं।
दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीनभाव है, जो औरों की तुलना में स्वयं को गुणों, सामर्थ्य, सत्ता और योग्यता में कमतर समझता है। दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है। शरीर के किसी अंग/उपांग की संरचना का बदल जाना या उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आना ‘रोग’ कहलाता है। भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है।
केशव कृष्ण ने बताया कि मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रु विराजमान रहते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष।
ज्ञान से बड़ा व्यक्ति का कोई मित्र नहीं है। वहीं मोह इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है। उसे जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझने देता। जब व्यक्ति किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाता तो काम वासना व्यक्ति को दिमागी रूप से बीमार बना देती है और उसके सोचने समझने की शक्ति को हर लेती है।
क्रोध से भयंकर कोई आग नहीं है। क्रोध ऐसी अग्नि है जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर जलाकर खोखला कर देती है। उसकी बुद्धि को हर लेती है। क्रोध में व्यक्ति अक्सर गलत निर्णय ले लेता है, जिसके लिए बाद में उसे पछताना पड़ता है।
लोभ: किसी प्रकार का सुख या आनन्द देनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में मन की ऐसी स्थिति को लोभ कहते हैं जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति, सान्निध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े, लोभ कहते हैं। दूसरे की वस्तु का लोभ करके लोग उसे लेना चाहते हैं, अपनी वस्तु का लोभ करके लोग उसे देना या नष्ट होने देना नहीं चाहते।
आजकल जिसे लोग प्रेम कहते हैं, वह किसी दूसरे के साथ खुद को बांधने का, खुद की पहचान बनाने का एक तरीका है। लेकिन यह प्रेम नहीं है, यह मोह है, आसक्ति है। हम हमेशा आसक्ति को ही प्रेम समझ बैठते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि आसक्ति का प्रेम से कोई लेना-देना नहीं है वह मोह है।