सचेतन :77 श्री शिव पुराण- मनुष्य के अंदर के छह सबसे बड़े शत्रु (प्रेम से मुक्ति)

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हमारे जीवन का सत्य यह है की जब तक मनुष्य भक्तिभाव से सनातन यानी सत्य की ओर नहीं झुक जाता है, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रु जनित पीड़ा, ये चारों प्रकार के पाप दुखी करते हैं। 

दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीनभाव है, जो औरों की तुलना में स्वयं को गुणों, साम‌र्थ्य, सत्ता और योग्यता में कमतर समझता है। दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है। शरीर के किसी अंग/उपांग की संरचना का बदल जाना या उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आना ‘रोग’ कहलाता है। भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है। 

केशव कृष्ण ने बताया कि मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रु विराजमान रहते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष। 

ज्ञान से बड़ा व्यक्ति का कोई मित्र नहीं है। वहीं मोह इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध से भयंकर कोई आग नहीं है। क्रोध ऐसी अग्नि है जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर जलाकर खोखला कर देती है। उसकी बुद्धि को हर लेती है। 

लोभ: किसी प्रकार का सुख या आनन्द देनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में मन की ऐसी स्थिति को लोभ कहते हैं जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति, सान्निध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े, लोभ कहते हैं। 

आजकल जिसे लोग प्रेम कहते हैं, वह किसी दूसरे के साथ खुद को बांधने का, खुद की पहचान बनाने का एक तरीका है। लेकिन यह प्रेम नहीं है, यह मोह है, आसक्ति है। 

जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं, जैसे पारिवारिक संबंध, वैवाहिक संबंध, व्यापारिक संबंध, सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेमपूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, तो इसे खुद को मिटा देन की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम ’मिटा देने’ की बात कहते हैं तो हो सकता है, यह नकारात्मक लगे।

जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता, तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम बेशक खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।

आप इसे कुछ भी कह लें – मिटाना कह लें या मुक्ति कह लें, विनाश कह लें या निर्वाण कह लें। जब हम कहते हैं, ’शिव विनाशक हैं,’ तो हमारा मतलब होता है कि वह मजबूर करने वाले प्रेमी हैं। जरूरी नहीं कि प्रेम खुद को मिटाने वाला ही हो, यह महज विनाशक भी हो सकता है।

सुमित्रानंदन पंत (हिन्दी कविता) प्रेम मुक्ति 

एक धार बहता जग जीवन

एक धार बहता मेरा मन!

आर पार कुछ नहीं कहीं रे

इस धारा का आदि न उद्गम!

सत्य नहीं यह स्वप्न नहीं रे

सुप्ति नहीं यह मुक्ति न बंधन

आते जाते विरह मिलन नित

गाते रोते जन्म मृत्यु क्षण!

व्याकुलता प्राणों में बसती

हँसी अधर पर करती नर्तन

पीड़ा से पुलकित होता मन

सुख से ढ़लते आँसू के कण!

शत वसंत शत पतझर खिलते

झरते, नहीं कहीं परिवर्तन,

बँधे चिरंतन आलिंगन में

सुख दुख, देह-जरा उर यौवन!

एक धार जाता जग जीवन

एक धार जाता मेरा मन,

अतल अकूल जलधि प्राणों का

लहराता उर में भर कंपन!

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