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मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रुओं के बारे में केशव ने बताया है की -काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष बड़े शत्रु मनुष्य के अंदर विराजमान रहते हैं ।
द्वेष का अर्थ है की चित्त को अप्रिय लगने की वृत्ति । द्वेष का भाव चिढ़, शत्रुता, वैर से है। चित्त मन का सबसे भीतरी आयाम है, और राग-द्वेष का संबंध उस चीज से है जिसे हम चेतना कहते हैं। अगर आपका मन सचेतन हो गया, अगर आपने चित्त पर एक खास स्तर का सचेतन नियंत्रण पा लिया, तो आपकी पहुंच अपनी चेतना तक हो जाएगी तो हम राग-द्वेष का नियंत्रण कर सकते हैं।
हमारी प्रत्येक इन्द्रिय प्रत्येक विषय के राग-द्वेष में अलग-अलग स्थिति के साथ रहता है। इन्द्रिय में अनुकूलता और प्रतिकूलता की मान्यता होती है जिससे मनुष्य के राग-द्वेष भी अनुकूलता और प्रतिकूलता होते हैं।
इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता का भाव होने पर मनुष्य का उस विषय में ‘राग’ हो जाता है और प्रतिकूलता का भाव होने पर उस विषय में ‘द्वेष’ हो जाता है।
वास्तव में राग-द्वेष का अर्थ ‘अहम्’-(मैं-पन-) से है। भगवान हमेंशा अपने साधक को आश्वासन देते हैं कि राग-द्वेष की वृत्ति उत्पन्न होने पर उसे साधन और साध्य से कभी निराश नहीं होना चाहिये, अपितु राग-द्वेष की वृत्ति के वशीभूत होकर उसे किसी कार्य में प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये।
राग-द्वेष पर विजय पाने के उपाय
राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से राग-द्वेष पुष्ट (प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति-(स्वभाव-) का रूप धारण कर लेते हैं। प्रकृति के अशुद्ध होने पर प्रकृति की अधीनता रहती है। ऐसी अशुद्ध प्रकृति की अधीनता से होने वाले कर्म मनुष्य को बाँधते हैं। अतः राग-द्वेष के वश में होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति नहीं होनी चाहिये– यह उपाय यहाँ बताया गया।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राग द्वेष अन्तःकरण के धर्म हैं अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता। पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दिखती। वास्तव में राग-द्वेष अन्तःकरण का आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं। यदि ये अन्तःकरण के धर्म होते तो जिस समय अन्तःकरण जागृत रहता है, उस समय राग-द्वेष भी रहते अर्थात इनकी सदा ही प्रतीति होती। परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभी-कभी ही होती है। साधन करने पर राग-द्वेष उत्तरोत्तर कम होते–हैं यह साधकों का अनुभव है। कम होनेवाली वस्तु मिटनेवाली होती है। इससे भी सिद्ध होता है कि राग-द्वेष अन्तःकरणके धर्म नहीं हैं। भगवान ने रागद्वेष को ‘मनोगत’ कहा है।यानी जो मन में हो । मन में आया हुआ । दिली।
यदि सत्सङ्ग, भजन, ध्यान आदि में ‘राग’ होगा तो संसार से द्वेष होगा; परन्तु ‘प्रेम’ होने पर संसार से द्वेष नहीं होगा। संसार के किसी एक विषय में ‘राग’ होने से दूसरे विषय में द्वेष होता है, पर भगवान में प्रेम होने से संसार से वैराग्य होता है। वैराग्य होने पर संसार से सुख लेने की भावना समाप्त हो जाती है और संसार की स्वतः सेवा होती है।
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