सचेतन :81 श्री शिव पुराण- हम वास्तव में कौन हैं?
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मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रुओं के बारे में केशव ने बताया है की काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष बड़े शत्रु मनुष्य के अंदर विराजमान रहते हैं ।
द्वेष का अर्थ है की चित्त को अप्रिय लगने की वृत्ति । वास्तव में राग-द्वेष का अर्थ ‘अहम्’-(मैं-पन-) से है। अहं या फिर अहम् संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण शब्द है।
अहम् (अहं ) का उपयोग उत्तम पुरुष एकवचन(First person) के लिए किया जाता है। जब वक्ता श्रोता से या अन्य किसी व्यक्ति से स्वयं के बारे में बाते कर रहे हो तब ।
‘अहम्’-(मैं-पन-) या फिर अहंकार यह एक बहुत ही जटिल अवधारणा है, जिसमें मनोविज्ञान, दर्शनशास्र जैसे विभिन्न क्षेत्र शामिल हैं।’अहम्’-(मैं-पन-) में सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं या सबसे बड़ी संभावना को खोजना जहां आप सादगी के साथ अपने आप को प्रस्तुत करने की कोशिश कर सकते हैं
अहंकार के कई अलग-अलग सिद्धांत और उपचार भी है। जिसमें अहंकार को जब वास्तव में हम खुद की मानसिक छवि सोचते हैं और हम अपने शरीर, हमारे चरित्र और हमारे अस्तित्व को सामान्य रूप से देखना शुरू करते हैं तो हमें लगता है कि हमारे पास वास्तविकता और हमारे चरित्र हैं।
यह समझने के लिए कि हम वास्तव में कौन हैं, केवल यह सोचना काफी नहीं है कि हम जीवन में क्या करना पसंद करेंगे या हम कैसे बनना चाहेंगे। और दूसरा व्यक्ति हमारे बारे में क्या सोचता है यह भी एक पहलू है।
मुश्किल काम है अभिनय करना क्योंकि हर तरह से हम जो करते हैं वही परिभाषित करता है कि हम कौन हैं। इसलिए हमें अब तक हासिल किए गए लक्ष्यों, हमारे कार्यों और उनके परिणामों का मूल्यांकन करना चाहिए। अपने अहंकार को समझना और उसका विश्लेषण करना जरूरी है।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राग द्वेष या अहंकार अन्तःकरण के धर्म हैं अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता। पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दिखती। वास्तव में राग-द्वेष अन्तःकरण का आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं। भगवान ने रागद्वेष को ‘मनोगत’ कहा है।यानी जो मन में हो । मन में आया हुआ । दिली।
प्रेम’ होने पर संसार से द्वेष नहीं होगा।
इससे शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के साथ ‘अहम्’ भी स्वतः संसार की सेवा में लग जाता है। परिणामस्वरूप शरीरादि के साथ-साथ ‘अहम्’ से भी सम्बन्ध-विच्छेद होने पर उसमें रहनेवाले राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।मनुष्यकी क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्त को लेकर होती हैं। केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिये कर्म करना सिद्धांत को लेकर कर्म करना है। स्वभाव दो प्रकार का होता है–रागद्वेषरहित (शुद्ध) और राग-द्वेषयुक्त (अशुद्ध)।
स्वभाव को मिटा तो नहीं सकते, पर उसे शुद्ध अर्थात् राग-द्वेष रहित अवश्य बना सकते हैं। जैसे गंगा गंगोत्री से निकलती है; गङ्गोत्री जितनी ऊंचाई पर है, अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय, तो गंगा के प्रवाहको रोका जा सकता है। परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है। हाँ गंगा में नहरें निकालकर उसके प्रवाहको बदला जा सकता है। इसी प्रकार स्वाभाविक कर्म के प्रवाह को मिटा तो नहीं सकते, पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको राग-द्वेष रहित बना सकते हैं।