सचेतन 2.26: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सोच-विचार करने से निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति होती है, वही ज्ञान है
देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय जैसी लंकापुरी को देखकर हनुमान जी भी विचार करने लगे।
हमने अबतक यह समझा की अवलोकन या निरीक्षण करने से विज्ञान उपजता है और यही तथ्य और परिकल्पना हनुमान जी को भी लग रह था जब वे विश्वकर्मा की बनायी हुई लंका को एक सुन्दरी स्त्री के तरह से मानसिक संकल्प कर रहे थे।लंका की चहारदीवारी और उसके भीतर की जघनस्थली तथा समुद्र का विशाल जलराशि और वन मानो उस स्त्री के वस्त्र, केश और आभूषण-सी प्रतीत हो रही थीं।
अब हनुमान जी विचार करने लगे, की पहले यह तो पता लगाऊँ कि विदेह कुमारी सीता जीवित हैं या नहीं। जनक किशोरी का दर्शन करने के पश्चात् ही मैं इस विषय में कोई विचार करूँगा। तदनन्तर उस पर्वत-शिखर पर खड़े हुए कपिश्रेष्ठ हनुमान् जी श्रीरामचन्द्रजी के अभ्युदय के लिये सीताजी का पता लगाने के उपाय पर दो घड़ी तक विचार करते रहे।
उन्होंने सोचा—मैं इस रूप से राक्षसों की इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता; क्योंकि बहुत-से क्रूर और बलवान् राक्षस इसकी रक्षा कर रहे हैं। विचार में सतर्कता का ज्ञान सबसे पहले ज़रूरी है।
जानकी की खोज करते समय मुझे अपने को छिपाने के लिये यहाँ के सभी महातेजस्वी, महापराक्रमी और बलवान् राक्षसों से आँख बचानी होगी। अतः मुझे रात्रि के समय ही नगर में प्रवेश करना चाहिये और सीता का अन्वेषण रूप यह महान् समयोचित कार्य सिद्ध करने के लिये ऐसे रूप का आश्रय लेना चाहिये, जो आँख से देखा न जा सके केवल कार्य से यह अनुमान हो कि कोई आया था।
सोच-विचार करने की प्रक्रिया में हमें निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति होती है जो ज्ञान है। प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख इत्यादि की स्वानुभूति में निरपेक्ष होना ज़रूरी है। अगर हम कहें की हनुमान जी तो बालशाली थे फिर उनको भय क्यों लगेगा। यह समझना ज़रूरी हैं की सत्य की स्वानुभूति किसी पर अवलंबित यानी निर्भर नहीं होती है। कोई भी भाव, विषयों पर आधारित होता है। जैसे की हनुमान जी लंका के अवलोकन से भाप रहे थे वहाँ की दिशा दशा को स्वाभाविक और सहज रूप से स्वीकार कर रहे थे। सोच-विचार करने से ही अनुभव की अनुभूति होती है जो ज्ञान कहलाता है।
देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय वैसी लंकापुरी को देखकर हनुमान जी बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए यों विचार करने लगे— की किस उपाय से काम लूँ, जिससे दुरात्मा राक्षसराज रावण की दृष्टि से ओझल रहकर मैं मिथिलेशनन्दिनी जनक-किशोरी सीता का दर्शन प्राप्त कर सकूँ। किस रीति से कार्य किया जाय, जिससे जगद्विख्यात श्रीरामचन्द्रजी का काम भी न बिगड़े और मैं एकान्त में अकेली जानकीजी से भेंट भी कर लूँ।
सोच-विचार करने से दूरदर्शिता, सतर्कता सभी का अनुमान लगा सकते हैं। हनुमान जी ने यह भी सोचा की कई बार कातर अथवा अविवेकपूर्ण कार्य करने वाले दूत के हाथ में पड़कर देश और काल के विपरीत व्यवहार होने के कारण बने-बनाये काम भी उसी तरह बिगड़ जाते हैं, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है। राजा और मन्त्रियों के द्वारा निश्चित किया हुआ कर्तव्याकर्तव्यविषयक विचार भी किसी अविवेकी दूत का आश्रय लेने से शोभा (सफलता) नहीं पाता है। अपने को पण्डित मानने वाले अविवेकी दूत सारा काम ही चौपट कर देते हैं।
हनुमान जी फिर से सोचते हैं की – अच्छा तो किस उपाय का अवलम्बन करने से स्वामी का कार्य नहीं बिगड़ेगा; मुझे घबराहट या अविवेक नहीं होना है और मेरा यह समुद्र का लाँघना भी व्यर्थ नहीं होने पायेगा। यदि राक्षसों ने मुझे देख लिया तो रावण का अनर्थ चाहने वाले उन विख्यातनामा भगवान् श्रीराम का यह कार्य सफल न हो सकेगा। यहाँ दूसरे किसी रूप की तो बात ही क्या है, राक्षस का रूप धारण करके भी राक्षसों से अज्ञात रहकर कहीं ठहरना असम्भव है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि राक्षसों से छिपे रहकर वायुदेव भी इस पुरी में विचरण नहीं कर सकते। यहाँ कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जो इन भयंकर कर्म करने वाले राक्षसों को ज्ञात न हो।