सचेतन 198: सत्य के लिए प्यासे हो सकें
आत्म ज्ञान के प्रश्न के साथ ही उत्तर है और वह उत्तर आपके भीतर से उपलब्ध होता है।
अंतिम रूप से आज तो सिर्फ प्रश्न उठाता हूं, वह आपके भीतर गूंजे, मैं कौन हूं?
आज तो प्रश्न खड़ा करता हूँ उस प्रश्न को साथ लिए जाएं। रात उसे साथ लिए सो जाएं और थोड़ा प्रयोग करके देखें। उत्तर जो भी आता हो उसे बाहर रख कर हटा दें, उत्तर जो भी आता हो उसे इनकार कर दें और प्रश्न को गहरा होने दें। जहां आपने उत्तर पकड़ा प्रश्न वहीं मर जाएगा। जहां आपने उत्तर पकड़ा प्रश्न वहीं समाप्त हो जाएगा। तो अगर प्रश्न को गहरे जाने देना है तो उत्तर मत पकड़ना।
जब प्रश्न ही प्रश्न रह जाए और कोई उत्तर मन में न हो तब, तब कोई चीज जगनी शुरू होगी। तब कोई हमारे भीतर से दौड़ेगा हमारी सहायता को। तब कोई हमारे भीतर से उठेगा हमारी सहायता को। तब हमारे भीतर कोई जगेगा जो सोया है। और वही आत्म परिचय बन जाता है, वही आत्म-ज्ञान बन जाता है। मैं कौन हूं?
शोपनहार (जो विद्या की खोज करता है) एक सुबह कोई तीन बजे रात जल्दी उठ गया और एक बगीचे में गया। बगीचे में था अंधेरा और शॉपनहार था विचारक, एकांत पाकर जोर-जोर से खुद से बातें करने लगा। कोई था नहीं इसलिए कोई डर भी नहीं था। कोई होता है तो हम दूसरे से बातें करते हैं कोई नहीं होता है तो हम अपने से बातें करते हैं। वह भी अपने से बात करने लगा कोई भी नहीं था।
माली की नींद खुली उसने सोचा रात तीन बजे कौन आ गया है यहां। और फिर बातें करते हुए घूम रहा है, और अकेला ही मालूम होता है। माली डरा, सोचा शायद कोई पागल है। उसने लालटेन उठाई, अपना भाला उठाया और गया और दूर से ही चिल्ला कर पूछा, डर के मारे, कौन हो?
शॉपनहार हंसने लगा। हंसने से माली और घबड़ा गया। निश्चित ही पागल है सुबह-सुबह आ गया, अपने से बातें करता घूमता है। पूछा कौन हो उत्तर क्यों नहीं देते? शापनहार ने कहा: मेरे मित्र, काश उत्तर दे सकता। इधर तीस वर्षों से अपने से यही पूछ रहा हूं कौन हूं? खुद को ही पता नही चलता तुम्हें क्या उत्तर दूं।
लेकिन मैं आपसे कहूं कि शॉपनहार को इसीलिए पता नहीं चला कि वह पूछता तो था कि मैं कौन हूं? लेकिन बहुत से उत्तर खोजता था, उपनिषद में, यहां-वहां,कांट में, गूगल में और न मालूम कहां-कहां उत्तर खोजता था इसलिए तीस साल खराब गए। और पता नहीं शॉपनहार को मरते वक्त भी पता चला कि नहीं चला। मैं नहीं समझता कि पता चला होगा, क्योंकि तब भी वह उत्तर खोज रहा था। उत्तर खोज रहा है, भीतर प्रश्न है, उत्तर बाहर खोजे जा रहे हैं। उत्तर नहीं मिलेंगे।
मैं आपसे कहता हूंः प्रश्न में ही उत्तर छिपा है। बाहर मत खोजें। और बाहर के किसी उत्तर को स्वीकार न करें। और प्रश्न को आने दें पूरे-पूरे वेग से कि वह सारे प्राणों के रंध्र-रंध्र को भर दे, श्वास-श्वास भर दे। हृदय की धड़कन-धड़कन उससे भर जाए। प्रश्न ही रह जाए और कुछ न हो। तब वहीं, बिलकुल वहीं प्रश्न के साथ ही उत्तर है। वह उत्तर बाहर से नहीं आता, वह उत्तर भीतर से उपलब्ध होता है।
परमात्मा करे कि वह उत्तर उपलब्ध हो लेकिन प्रश्न आपको पूछना पड़ेगा। मेरा प्रश्न नहीं हो सकता है। किसी और का प्रश्न नहीं हो सकता, तो कल अगर आपके मन में अपना प्रश्न हो तो आएं, सचेतन कोई व्याख्यान नहीं है, कोई उपदेश नहीं है। यहां कोई आपको कुछ समझाने का कोई रस नहीं है कोई आनंद नहीं है। वह प्रश्न उठता हो तो आएं तो फिर कुछ बात हो सकेगी तो फिर दो हृदय किसी तल पर मिल सकते हैं। और कोई बात हो सकती है।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है। और ऐसी बातों को जो आपको ज्ञान नहीं देतीं बल्कि आपके अज्ञान के लिए आग्रह करती हैं। बड़ी कृपा है और दया है, इतने प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। परमात्मा करे आज जो अज्ञान है वह कल ज्ञान बन जाए, आज जो अंधकार है वह कल प्रकाश बन जाए, इस कामना के साथ आज की बात पूरी करता हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को मेरेे प्रणाम स्वीकार करें।
सबसे पहले तो आपका स्वागत करूं–इसलिए कि परमात्मा में आपकी उत्सुकता है–इसलिए कि सामान्य जीवन के ऊपर एक साधक के जीवन में प्रवेश करने की आकांक्षा है–इसलिए कि संसार के अतिरिक्त सत्य को पाने की प्यास है।
सौभाग्य है उन लोगों का, जो सत्य के लिए प्यासे हो सकें। बहुत लोग पैदा होते हैं, बहुत कम लोग सत्य के लिए प्यासे हो पाते हैं। सत्य का मिलना तो बहुत बड़ा सौभाग्य है। सत्य की प्यास होना भी उतना ही बड़ा सौभाग्य है। सत्य न भी मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही पैदा न हो, तो बहुत बड़ा हर्ज है।
सत्य यदि न मिले, तो मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। हमने चाहा था और हमने प्रयास किया था, हम श्रम किए थे और हमने आकांक्षा की थी, हमने संकल्प बांधा था और हमने जो हमसे बन सकता था, वह किया था। और यदि सत्य न मिले, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन सत्य की प्यास ही हममें पैदा न हो, तो जीवन बहुत दुर्भाग्य से भर जाता है।
और मैं आपको यह भी कहूं कि सत्य को पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना सत्य के लिए ठीक अर्थों में प्यासे हो जाना है। वह भी एक आनंद है। जो क्षुद्र के लिए प्यासा होता है, वह क्षुद्र को पाकर भी आनंद उपलब्ध नहीं करता। और जो विराट के लिए प्यासा होता है, वह उसे न भी पा सके, तो भी आनंद से भर जाता है।